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[८१] जहाँ तक तांगे जाते हैं। पहाड़ पर लगभग तीन मील चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। यह सिद्ध क्षेत्र है। यहाँ से तीन पांडव कुमार - युधिष्ठर, अर्जुन और भीम द्राविड़ देश के राजा और आठ करोड़ मुनि मोक्ष पधारे थे। मन्दिर के परकोट के पास पहुंचने पर पाँडवकुमारों की खड्गासन मूर्तियाँ श्वेताम्बरी हैं। परकोटे के अन्दर लगभग ३५०० श्वे० मन्दिर अपूर्व शिल्पचातुर्य के दर्शनीय हैं। श्रीयादिनाथ, सम्राट कुमार. पाल, विमलशाह और चतुर्मुख मन्दिर, उल्लेखनीय है । रतनपोल के पास एक दि० जैन मन्दिर फाटक के भीतर है। इस फाटक का सुन्दर दरवाजा पारा निवासी बाबू निर्मलकुमारजी ने लगवाया था। शहर के बाग वगैरह देखने योग्य स्थान है। शहर में एक छोटा-सा दि० जैन मन्दिर और धर्मशाला है, परन्तु यहां से तीन मील तलहटी की धर्मशाला में ठहरना चाहिए। सामान यहाँ से
गिरिनार (ऊर्जयन्त) गिरिनार ( ऊर्जयन्त ) मनोहर पर्वतराज हैं- उसके दर्शन दिल को अनूठी शान्ति देते हैं। धर्मशाला के ऊपर ही गगनचुम्बी ऊर्जयन्त अपनी निराली शोभा दिखाता है । तलहटी में एक दि० जैन मन्दिर है, जिसमें सं० १५१० का एक यन्त्र और १५४८ की साह जीवराज जी पापड़ीबाल द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा प्राचीन है। शेष मूर्तियाँ अर्वाचीन है। मूलनायक श्री नेमिनाथ जी की कृष्ण पाषाण की प्रतिमा सं० १९४७ पिपलिया निवासी श्री पन्नालाल जी टोंग्या ने प्रतिष्ठित कराई थी। प्रतापगढ़ के श्री बंडीलाल जी के वंशज एक कमेटी द्वारा इस तीर्थराज का प्रबन्ध करते हैं। यह धर्मशाला व कोठी श्री बंडीलाल जी के प्रयत्न के फल हैं। धर्मशाला से पर्वत की चढ़ाई का दरवाजा १०० कदम है। वहाँ पर शिलालेख हैं, जिससे प्रगट है कि दीवान वेचरदास के उद्योग से १० लाख रुपयों की लागत द्वारा काले पत्थर की
लेवें।