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एक स्वर्ण वेला में तीर्थकर भगवान का विहार होता है, जिसके प्रागे आगे धर्म चक्र चलता है । सारे आर्य खड में सर्वज्ञ. सर्वदर्शी जिनेन्द्र प्रभु का विहार और धर्मोपदेश होता है । अत: प्रायुक्म के निकट अवसान में वह जीवनमुक्त परमात्मा किसी पुण्य क्षेत्र पर प्रा विराजमान होते हैं और वहीं से लोकोत्तर ध्यान की साधना से अघातिया कर्मो का भी नाश करके अशरीरी परमात्मा हो जाते हैं। निर्वाण काल के समय उनके ज्ञानपुंज प्रात्मा का दिव्य प्रकाश लोक को आलोकित कर देता है और वह क्षेत्र ज्ञान किरण से संस्कारित हो जाता हैं। देवेन्द्र वहां आकर निर्वाण कल्याण की पूजा करता है और उस स्थान को अपने बज्र दण्ड से चिह्नित कर देता है। + भक्तजन ऐसे पवित्र स्थानों पर चरण चिन्ह स्थापित करके उपयुक्त लिखित दिव्य घटनाओं की पुनित स्मृति स्थायी बना देते हैं । मुमुक्षु उनकी वन्दना करते हैं
और उस प्रादर्श से शिक्षा ग्रहण करके अपना आत्मकल्याण करते हैं। यह है तीर्थों का कल्याण-रहस्य ।
किन्तु तीर्थ भगवान के काल्याणक स्थानों के अतिरिक्त सामान्य केवली महापुरुषों के निर्माण स्थान भी तीर्थवत् पूज्य हैं। वहां निरन्तर यात्रीगण आते जाते हैं, उस स्थान की विशेषता उन्हें वहां ले आती है। वह एक मात्र आत्म-साधना के चमत्कार की द्योतक होती है उस पवित्र क्षेत्र पर किसी पूज्य साधु ने उपसर्ग सहन कर अपने आत्मबल का चमत्कार प्रगट किया होगा अथवा वह स्थान अगणित आराधकों की धर्माराधना और सल्लेखनाव्रत की पालना से दिव्य रूप पा लेता है वहां पर अद्भुत और अतिशय पूर्ण दिव्य मूर्तियाँ और मन्दिर मुमुक्षु के हृदय पर ज्ञान-ध्यान की शांतिपूर्ण मुद्रा अंकित करने में कार्यकारी होते हैं।
+ हरिवंश पुराण व उत्तर पुराण देखो। +पार्श्वनाथचरित्र (कलकत्ता) पृष्ठ ४२० ।