SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वादादविमर्श स्याद्वाद जैनदर्शनका मौलिक सिद्धान्त 'स्याद्वाद' जैन दर्शनका एक मौलिक एव विशिष्ट सिद्धान्त है । 'स्याद्वाद' पद 'स्यात्' और 'वाद' इन दो शब्दोसे बना है । यहाँ 'स्यात्' शब्द अव्यय निपात है, 'क्रिया' शब्द या अन्य शब्द नही है । इसका अर्थ कथचित् किंचित्, किसी अपेक्षा, कोई एक दृष्टि, कोई एक धर्मकी विवक्षा, कोई एक ओर, है । " और 'वाद' शब्द का अर्थ है मान्यता अथवा कथन जो 'स्यात्' (कथचित्) का कथन करने वाला अथवा 'स्यात्' को लेकर प्रतिपादन करने वाला है वह 'स्याद्वाद' है । अर्थात् जो विरोधी धर्मका निराकरण न करके अपेक्षासे वस्तु धर्मका प्रतिपादन (विधान) करता है उसे 'स्याद्वाद' कहा गया है। कथचित्वाद, अपेक्षावाद आदि इसी के नामान्तर हैं-इन नामोसे उसीका वोध किया जाता है। स्मरण रहे कि वक्ता अपने अभिप्रायको यदि सर्वथाके साथ प्रकट करता है तो उससे सही वस्तुका बोष नही हो सकता और यदि 'स्यात्' के साथ वह अपने अभिप्रायको प्रकट करता है तो वह वस्तु-स्वरूपका यथार्थ प्रतिपादन करता है क्योकि कोई भी धर्म वस्तुमें 'सर्वया' ऐकान्तिक नहीं है। सत्त्व असत्त्व, नित्यता, अनित्यता, एफत्व, अनेकत्व आदि भी धर्म वस्तुमें हूँ और वे सभी भिन्न-भिन्न अपेक्षामसि उसमें विद्यमान हैं । सत्त्व असत्त्वका नित्यत्व अनित्यत्वका, एकत्व अनेकत्वका और वक्तव्यत्व अवतव्यत्वका नियमसे अविनाभावी है। वे एक दूसरेको छोटकर नहीं रहते। हाँ, एक्की प्रधान विवक्षा होनेपर दूसरा गौण हो जायेगा । पर वे धर्म रहेंगे सभी । इसीसे वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । इस विषयको जैन विचारक आचार्य समन्तभद्रने' बहुत स्पष्टताके साथ समझाया है । अत. प्रत्येक वक्ता जब कोई बात कहता है तो वह 'स्याद्वाद' की भाषामें कहता है । भले ही वह स्याद्वादका प्रयोग करे या न करे । स्याद्वादका सार्वत्रिक उपयोग लौकिक या पारलौकिक कोई भी ऐसा विषय नहीं है, जिसमें स्याद्वादका उपयोग न किया जाता हो । जीवनके दैनिक व्यवहारसे लेकर मुक्ति तक के सभी विषयो में स्याद्वादका उपयोग होता है और हर व्यक्ति उसे करता है। टोपी, कुरता, घोती आदि जितने शब्द और सकेत है वे सब विवक्षित अभिप्रायोको प्रकट करनेके साथ ही अविवक्षित गौण अभिप्रायोंकी भी सूचना करते हैं। यह दूसरी बात है कि उन्हें कहते समय या सुनते समय उन गौण अभिप्रायोकी और वक्ता या श्रोताका ध्यान न जाय क्योकि उसका काम १ स्याद्वाद सर्वकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विषि । सप्तभङ्गनयापेक्षी यादेयविशेषक ॥ - समन्तभद्र, आप्तमी का १०४ । २ सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नया । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ सर्वथा नियम त्यागी यथादृष्टमपेक्षक । स्याच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ — समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र १०४, १०५ । - ६२
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy