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३ तीसरा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) को भोगोमें आसक्त नहीं होना चाहिए। भोगोंमें आसक्त व्यक्ति अपना तथा दूसरोका अहित करता है । वह न केवल अपना स्वास्थ्य ही नष्ट करता है, अपितु ज्ञान, विवेक, त्याग, पवित्रता, उच्चकुलोनता आदि कितने ही सद्गुणोका भी नाश करता है और भावी सन्तानको निर्बल बनाता है तथा समाजमें दुराचार एव दुर्बलताको प्रश्रय देता है । अत प्रत्येक पुरुषको अपनी पत्नीके साथ और प्रत्येक स्त्रीको अपने पतिके साथ सयमित जीवन विताना चाहिए।
४ नौथा यह है कि सचयवृत्तिको सीमित करना चाहिए, क्योंकि आवश्यकतासे अधिक सग्रह करनेसे मनुष्यको तृष्णा बढती है तथा समाजमें असन्तोष फैलता है। यदि वस्तुओका अनुचित रीतिसे सग्रह न किया जाय और प्राप्तपर सन्तोष रखा जाय तो दूसरोको जीवन-निर्वाहके साधनोंकी कमी नही पड सकती।
इस तरह अहिंसाको जीवन में लानेके लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण इन चार नियमोका पालन करना आवश्यक है। उनके बिना अहिंसा पल नही सकती-पूर्णरूपमें वह जीवनमें नहीं आ सकती। यही पांच व्रत भगवान् महावीरका आचार-धर्म है । आचार-धर्मका मूलाधार अहिंसा
ऊपर देख चुके हैं कि इस आचार-धर्मका मूलाधार 'अहिंसा' है, शेष चार व्रत तो उसी तरह उसके रक्षक है जिस तरह खेतोकी रक्षाके लिए बाढ (वारी) लगा दी जाती है। यह देखा जाता है कि गलत बात कहने, कटु बोलने, असगत कहने और अधिक बोलनेसे न केवल हानि ही उठानी पडती है किन्तु कलुषता, अविश्वास और कलह भी उत्पन्न हो जाते हैं। जो वस्तु अपनी नही, उसे विना मालिककी आज्ञासे ले लेनेपर वस्तुके स्वामीको दुख और रोष होता है। परपुरुष या परस्त्री गमन भी अशान्ति तथा तापका कारण है । परिग्रहका आधिक्य तो स्पष्टत सक्लेश और आपत्तियोका जनक है। इस प्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये चारो ही पापवत्तियां हिंसाके बढ़ाने में सहायक हैं। इसलिए इनके त्यागमें अहिंसाकै हा पालनका लक्ष्य निहित है । अतएव अहिंसाको 'परम धर्म' कहा गया है। द्रव्यहिंसा और भावहिंसा
अहिंसाके स्वरूपको समझनेके लिये हमें पहले हिंसाका स्वरूप समझ लेना आवश्यक है । भगवान् महावीरने हिंसाको व्याख्या करते हुए बतलाया कि 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा' अर्थात् दुष्ट अभिप्रायसे प्राणीको चोट पहुंचाना हिंसा है। सामान्यतया हिंसा चार प्रकारकी है-सकल्पी, आरभी, उद्योगी और विरोधी । इन चारो हिंसाओमें 'चोट पहुँचाना' समान है, पर सकल्पी (जानबूझकर की जानेवाली) हिंसामें दुष्ट अभिप्राय होनेसे उसका गृहस्थके लिए त्याग और शेष तीन हिंसामोमें दुष्ट अभिप्राय न होनेसे उनका अत्याग बतलाया गया है। वास्तवमें उन तीन हिंसामोमें केवल द्रव्यहिंसा होती है और सकल्पी हिंसामें द्रव्य हिंसा और भावहिंसा दोनों ही हिंसाएं होती है। जैनधर्ममें बिना भावहिंसाके कोरी द्रव्य-हिंसाको पापबन्धका कारण नही माना गया है। गृहस्थ अपने और परिवारके भरण-पोषणके लिए आरम्भ तथा उद्योग करता है और कभी-कभी अपनी, अपने परिवार, अपने समाज और अपने राष्ट्रकी रक्षाके लिए आक्रान्तासे लहाई भी लडता है और उसमें हिंसा होती ही है। परन्तु आरम्भ, उद्योग और विरोधके करते समय उसका दुष्ट अभिप्राय न होनेसे वह अहिंसक है तथा उसकी ये हिंसाएं क्षम्य हैं, क्योकि उसका लक्ष्य केवल न्याययुक्त भरण-पोषण तथा रक्षाका होता है। अतएव जैनधर्मके अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जाने या दुखी होनेसे ही हिंसा नही होती। ससारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे
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