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भगवान् महावीर ससार, शरीर, विषय-भोगोसे विरक्त होकर पहले अपनेको पूर्ण बनानेके लिये उन्मुख हुये, क्योकि वे अच्छी तरह समझते थे कि मैं अपूर्ण अवस्था और साम्राज्यशक्तिसे लोकका पूरा-पूरा हित नही कर सकता है। भले ही साम्राज्यशक्तिसे तात्कालिक याज्ञिक हिंसा बन्द हो जावे, पर यह असर उनके शरीर तक ही सीमित रहेगा, आत्मा तक नहीं पहुंचेगा । आदेशका असर शरीर तक ही सीमित रहता है जबकि उपदेशका असर आत्मापर होता है और चिरस्थायी होता है। इन सब बातोको विचारकर भगवान् महावीरने साम्राज्य-शक्तिको न आजमाकर आत्मशक्तिको ही आजमानेका सफल प्रयत्न किया । फलत लगातार १२ वर्षकी कठोर तपश्चर्याके वाद उन्हें पूर्णत्वकी प्राप्ति हो गई और वे सर्वज्ञ कहे जाने लगे।
भगवान् महावीरने उक्त असमञ्जसताओको दूर करनेवाले सफल तथ्य साधन स्याद्वाद (अपेक्षावाद) के द्वारा समन्वय करना शुरू किया और उनके एकान्त मन्तव्योका समुचित निरसन किया । केवल आत्माकी नित्यता या अनित्यता वैदिक हिंमाका विधान या निषेध नही कर सकती है। विधान और नित्यता, निषेध और अनित्यताम व्याप्ति नही है । यह नहीं कहा जा सकता है कि आत्मा नित्य है इसलिए वैदिक हिंसाके करने में कोई दोप-जीवघात नही है, वैदिक हिंसा वैध है और यह भी नही कहा जा सकता है कि आत्मा अनित्य है इसलिये वैदिक हिंसा दोष-जीवधात है-वैदिक हिंसा निषिद्ध है । नित्यता और अनित्यता परस्परमें सप्रतिपक्ष है।
अत इस प्रकारसे समझना चाहिये कि आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी। चैतन्यस्वरूप आत्मद्रव्य हर अवस्थाओमें रहता है उसका विनाश नही होता है. लेकिन अवस्थायें-पर्यायें बदलती रहती हैं, उनका विनाश होता है और ये पर्यायें आत्मद्रव्यसे पथक नही की जा सकती हैं. इसलिये अभिन्न है
और द्रव्य पर्यायका भेद सुप्रतीत होता है, इसलिए भिन्न भी हैं। यज्ञोमें किया गया पशुवध अवश्य हिंसा-जीवधात है क्योकि शरीरादिके नाश होनेपर आत्माका भी नाश होता है। जैसे तिलमें तेल सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है उसी प्रकार शरीरके अवयवोमे आत्मा व्याप्त होफर रहती है । यही बात है कि अगुली आदिके कट जानेपर कष्ट होता है, वेदना होती है । हिंसाका अर्थ ही जीवघात है, केवल घात या विनाश नहीं। इसीलिये हिंसा शब्दका प्रयोग अचेतन जडपदार्थोमे नही होता है। अत स्पष्ट है कि यज्ञोंमें किया गया पशुवध जीवघात है क्योकि वह सकल्पपूर्वक-जान-बूझकर किया जाता है प्रसिद्ध कसाइयोंके पशुवधके समान । यद्यपि घर-बार बनाने, कुटुम्ब परिपालन करने, आजीविकोपार्जन करने, मन्दिर आदिके निर्माण कराने में भी हिंसा-जीवघात होता है । पर यह हिंसा गृहस्थपदकी हैसियतसे क्षम्य है, अनिवार्य है, असकल्पपूर्वक है, साधुपदकी हैसियतसे तो यह भी अक्षम्य एव निवार्य है, तब धर्मको ओटमें यज्ञोम याज्ञिक गृहस्थो द्वारा की जानेवाली निवार्थ सकल्पी हिंसा कैसे जायज हो सकती है या वैध कही जा सकती है ? दूसरी बात यह है कि वेदमे कही हिंसा धर्म नही है, उससे अपने तथा दूसरोको वेदना-दुख उत्पन्न होता है, राग-द्वेष आदि प्रमत्त भावोसे की जाती है। हिंसा कभी भी धर्म नहीं है और न हुई है और न होगी । अहिंसा ही आत्माका निज धर्म है और वही प्राणियोको ससार-समुद्रसे पार उतारनेवाली है। ससारकी वह पुस्तक धर्मपुस्तक नही है जिसमें हिंसाका प्रतिपादन है। वह केवल एकदेशीय लोगो द्वारा जनताको ठगनेके लिये लिखी गई है। अत स्पष्ट है कि यज्ञोमें किया गया पशुवध धर्म नहीं है। हाँ, यदि यज्ञ करना ही है तो निम्न प्रकारका यज्ञ करो-अपनी अन्तरात्माको कुण्ड बनाओ, उसमें ध्यानरूपी अग्नि जलाओ और उसे इन्द्रियोके निग्रहरूप दमरूपी पवनसे उद्दीपित करो तथा उसमें अशुभकर्मरूपी ईधनकी आहुति दो। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको नष्ट करनेवाले कषायरूपी पशओका शमरूपी मन्त्रोंका उच्चारण करके हवन करो। ऐसा आत्मयज्ञ ही विद्वानो द्वारा विधेय है। कर्म