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वली या भुजबली था। इनके ज्येष्ठ भ्राता भरत थे। ऋषभदेवके दीक्षित होनेके पश्चाद् भरत और बाहुबली दोनो भाइयोमें साम्राज्यके लिए युद्ध हुआ। युद्धमें बाहुबलिकी विजय हुई। पर ससारकी गति (राज्य जैसी तुच्छ चीजके लिए भाइयोका परस्परमें लडना) देखकर बाहवलि विरक्त हो गये और राज्य अपने ज्येष्ठ भ्राता भरतको देकर तपस्या करने के लिए वनमें चले गये। एक वर्षकी कठोर तपस्याके उपरान्त उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुमा । भरतने, जो सम्राट् हो गये थे, बाहुबलीके चरणोमें पहुंचकर उनकी पूजा एव भक्ति की । बाहुबलीके मुक्त होनेके पश्चात् उन्होने उनकी स्मृतिमें उनकी शरीराकृतिके अनुरूप ५२५ धनुषप्रमाणको एक प्रस्तर मूर्ति स्थापित कराई । कुछ काल पश्चात् मूर्तिके आस-पासका प्रदेश कुक्कुट सोसे व्याप्त हो गया, जिससे उस मूर्तिका नाम कुक्कुटेश्वर पड गया। धीरे-धीरे वह मूर्ति लुप्त हो गयी और उसके दर्शन अगम्य एव दुर्लभ हो गये। गगनरेश रायमल्लके मन्त्री चामुण्डरायने इस मूर्तिका वृतान्त सुना और उन्हें उसके दर्शन करनेकी अभिलाषा हुई, पर उस स्थान (पोदनपुर) की यात्रा अशक्य जान उन्होने उसीके समान एक सौम्य मूत्ति स्थापित करनेका विचार किया और तदनुसार इस मूर्तिका निर्माण कराया ।"
कवि वोप्पण (११८० ई०) ने इस मूर्तिको प्रशसा करते हुए लिखा है कि "यदि कोई मूर्ति मत्युन्नत (विशाल) हो, तो यह आवश्यक नही कि वह सुन्दर भी हो। यदि विशालता और सुन्दरता दोनो भी हो, तो यह आवश्यक नही कि उसमें अलौकिक वैभव (भन्यता) भी हो। गोम्मटेश्वरकी मूर्तिमें विशालता, सुन्दरता और अलौकिक वैभव तीनोका सम्मिश्रण है। गोम्मटेश्वरकी मूर्तिसे बढकर ससारमें उपासनाके योग्य अन्य क्या वस्तु हो सकती है ?"
पाश्चात्य विद्वान् फर्गुसनने अपने एक लेखमें लिखा है कि "मिस्र देशके सिवाय ससार भरमे अन्यत्र इस मूर्तिसे विशाल और प्रभावशाली मूर्ति नहीं है।"
पुरातत्त्वविद् डा० कृष्ण लिखते हैं कि "शिल्पीने जैनधर्मके सम्पूर्ण त्यागकी भावना इस मूर्तिके अगअंगमें अपनी छैनीसे भर दी है। मत्तिकी नग्नता जैनधर्मके सर्व त्यागकी भावनाका प्रतीक है। एकदम सीधे
और मस्तक उन्नत किये खडे इस प्रतिबिम्बका अग-विन्यास पूर्ण आत्म-निग्रहको सूचित करता है । होठोकी दयामयी मुद्रासे स्वानुभूत आनन्द और दुखी दुनियाके साथ मूक सहानुभूतिकी भावना व्यक्त होती है ।"
हिन्दी जगत्के प्रसिद्ध विद्वान् काका कालेलकरने एक लेखमें लिखा है-"मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजुक और कान्तिमय है। एक ही पत्थरसे निर्मित इतनी सुन्दर मूत्ति संसारमें और कही नही। इतनी बड़ी मुत्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्तिके साथ कुछ प्रेमकी भी यह अधिकारिणी है। धूप, हवा और पानीके प्रभावसे पीछेको ओर ऊपरकी पपडी रिपर पडनेपर भी इसका लावण्य खण्डित नही
हुआ है।" -
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प्राच्यविद्यामहार्णव डॉ. हीरालाल जैनने लिखा है कि-"एशिया खण्ड ही नही, समस्त भूतलका विचरण कर आइये, गोम्मटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूर्ति आपको क्वचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बडे-बडे पश्चिमीय विद्वानोके मस्तिष्क इस मूर्तिकी कारीगरीपर चक्कर खा गये हैं। कम-से-कम एक हजार वर्षसे यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोसे बातें कर रही है, पर अब तक उसमें किसी प्रकारकी थोडी-सी भी क्षति नहीं हुई है, मानो मूर्तिकारने उसे आज ही उद्घाटित किया हो।"
ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि इस ससारको अद्भुत मूर्तिके प्रतिष्ठाता गगवशी राजा राचमल्लके प्रधान आमात्य और सेनापति चामुण्डराय है। चामुण्डरायको शिलालेखोमें समरधुरन्धर, रणरगसिंह, वैरिकुलकालदण्ड, असहायपराक्रम, समरपरशुराम, वीरमार्तण्ड, भटशिरोमणि आदि उपाधियोसे विभू
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