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________________ क्षमावणी : क्षमापर्व भारतवर्ष में प्राचीनकालरो दो रास्फतियोको अविराम-धारा वहती चली आ रही है । वे दो सस्कृतियाँ हैं-१ वैदिक और २ श्रमण । 'सस्कृति' शब्दका सामान्यतया यर्थ आचार-विचार और रहन-सहन है । जिनका आचार-विचार और रहन-महन वेदानुसारी है उनकी सस्कृति तो वैदिक सस्कृति है तथा जिनका आचार-विचार और रहन-गहन श्रमण-परम्पराके अनुसार है उनकी सस्कृति श्रमण-सस्कृति है । 'श्रमण' शन्द प्राकृत भाषाके 'समण' गन्दका सस्कृतरूप है। और यह 'समण' शब्द दो पदोंमे बना है-एक 'सम' और दूसरा 'अण', जिनका अर्थ है सम-इन्द्रियो और मनपर विजयकर समस्त जीवोंके प्रति समता भावका 'अण'-उपदेश करनेवाला महापुरुप (महात्मा-सन्त-साध)। ऐसे आत्मजयी एव आत्मनिर्भर महात्माओ द्वारा प्रवत्तित आचार-विचार एव रहन-सहन ही धमण-गस्कृति है। इन श्रमणोका प्रत्येक प्रयत्न और भावना यह होती है कि हमारे द्वारा किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचे, हमारे मुखसे कोई असत्य वचन न निकले, हमारे द्वारा स्वप्नमें भी परद्रव्यका ग्रहण न हो, हम सदैव ब्रह्मस्वरूप आत्मामें ही रमण करें, दया, दम, त्याग और समाधि ही हमारा धर्म (फर्तव्य) है, परपदार्थ हमसे भिन्न है और हम उनके स्वामी नही हैं। वास्तव में इन श्रमणोका प्रधान लक्ष्य आत्म-शोधन होता है और इसलिए वे इन्द्रिय, मन और शरीरको भी आत्मीय नही मानते उन्हें भौतिक मानते है। अत जिन वातोसे इन्द्रिय, मन और शरीरका पोपण होता है या उनमें विकार आता है, उन बातोका श्रमण त्याग कर देता है और सदैव आत्मिक चरम विकासके करने में प्रवृत्त रहता है । यद्यपि ऐसी प्रवृत्ति एव चर्या साधारण लोगोको कुछ कठिन जान पढेगी । किन्तु वह असाधारण पुरुपोंके लिए कोई कठिन नहीं है। ससारमें रहते हुए परस्पर व्यवहार करनेमें चूफ होना सम्भव है और प्रमाद तथा कपाय (क्रोध, अहकार, छल और लोभ) की सम्भावना अधिक है। किन्तु विचार करनेपर मालम होता है कि न प्रमाद अच्छा है और न कपाय । दोनोंसे आत्माका महित ही होता है-हित नही होता। यहां तक कि उनसे परका भी अहित हो सकता है-दूसरोको कष्ट पहुंच सकता है और उनसे उनके दिल दुखी हो सकते हैं तथा उनके हृदयको आघात पहुंच सकता है। अतएव इन श्रमणोने अनुभव किया कि देवसिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और वार्षिक ऐसे आयोजन किये जायें, जिनमें व्यक्ति अपनी भलोके लिए दूसरोसे क्षमा मागे और अपनेको कर्मबन्धनसे हलका करे । साधु तो दैवसिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण (क्षमायाचना) करते है । पर गृहस्थोके लिए वह कठिन है । अतएव वे ऐसा वार्षिक आयोजन करते हैं जिसमें वे अपनी भूल-चूकके लिए परस्परमें क्षमा याचना करते हैं। यह आयोजन उनके द्वारा सालमें एक बार उस समय किया जाता है, जब वे भाद्रपद शुक्ला ५मोसे भाद्रपद शुक्ला १४ तक दश दिन क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, सयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मके अगोकी सभवित पूजा, उपासना और आराधना कर अपनेको सरल और द्रवित बना लेते हैं। साथ ही प्रमाद और कषायको दुखदायी समझकर उन्हें मन्द कर लेते हैं तथा रत्नभय (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचार)को आत्माकी उपादेय निधि मानते हैं। फलत वे कषाय या प्रमादसे हुई अपनी भूलोके लिए एक-दूसरेसे क्षमा मागते और स्वय उन्हें -३४८
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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