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________________ सावधान रहे । अन्तिम समयकी उनके शरीरकी शास्त्रानुसार विधि करके उसे पद्मासन रूपमें चौकीपर विराजमान किया गया और प्रतिदिनकी तरह मचपर ले जाकर जनताके लिए उनके दर्शन कराये । २ घटे तक दशभक्ति आदिका पाठ हुआ। इसके बाद एक सुसज्जित पालकीमें महाराजके पौद्गलिक शरीरको विराजमान करके उस स्थानपर पहाडके नीचे ले गये, जहाँ दाह-सस्कार किया जाना था । पहाडपर ही मानस्तम्भके निकटके मैदान में बड़े सम्मानके साथ डेढ बजे प्रभावपूर्ण दाह-सस्कार हुआ। लगभग ३० मन चन्दन. ३ बोरे कपूरकी टिकिया तथा खुला कपूर, हजारो कच्चे नारियल व हजारो गोले चितामें डाले गये। दाहसंस्कार महाराजके भतीजे, रावजी देवचन्द, माणिकचन्द वीरचन्द आदि प्रमख लोगोंने किया । आगने धू-धूकर महाराजके शरीरको जला दिया । 'ओं सिद्धाप नम' प्रात ६-५० से १।। बजे तक जनताने बोला। इसी समय महाराजके आत्माके प्रति प० वर्द्धमानजी, हमने, प० तनसुखलालजी काला आदिने श्रद्धाञ्जलि-भापण दिये। दाह-सस्कारके समय सर्पराजके आनेकी बात सुनी गई। ज्योतिषशास्त्रानुसार महाराजका शरीरत्याग अच्छे मुहूर्त, योग और अच्छे दिन हुआ। रातको अनेक लोग दाहस्थानपर बैठे-खडे रहे। १९ सितम्बर ५५, को भस्मीके लिए हम ५ बने प्रात दाहस्थानपर पहुँचे और देखा कि भस्मीके विशाल ढेरको भक्तजनोंने समाप्त कर दिया और अब बीचमें आग मात्र रह गई। भक्तजनोकी उपस्थिति इस प्रकार यह महाराजका समाधिमरण ३५ दिवस तक चला, जो वस्तुत ऐतिहासिक है । इस अवसरपर निम्न व्रतीजन विद्यमान रहे - (१) मुनि श्री पिहितास्रव, (२) ऐलक सुबल, (३) ऐ० यशोधर, (४) क्षु० विमलसागर, (५) क्षु० सूरिसिंह, (६) क्षु० सुमतिसागर, (७) क्षु० महाबल, (८) क्षु० अतिबल, (९) क्षु० आदिसागर, (१०) क्षु० जयसेन, (११) क्षु० विजयसेन, (१२) क्षु० पार्श्वकीति, (१३) क्षु० ऋषभकीर्ति, (१४) क्षु० सिद्धसागर, (१५) भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन, (१६) भट्टारक श्री जिनसेन, (१७) भट्टारक देवेन्द्रकीति (प्रारम्भमें रहे), (१८) क्षुल्लिका पार्श्वमती, (१९) क्षु० अजितमति, (२०) क्षु० विशालमती, (२१) क्षु० अनन्तमती (२२) क्ष० जिनमती, (२३) क्ष वीरमती, ब्रजीवराज,अ. दीपचन्द, ब्र० चान्दमल, प्र० सूरजमल, ब्र० श्रीलाल आदि । समाजके अनेक प्रतिष्ठित श्रीमान तथा विद्वान् भी वहां उपस्थित रहे । ३५ दिवसोंमें लगभग ५० हजार जनता पहुंची। इतने जन-समहके होते हुए भी कोई विशेष घटना नहीं हुई। ३५ दिन जितना बहा मेला न सुना और न देखा। वह महाराजके जीवनव्यापी तप और आत्मत्यागका प्रभाव था। -३३०
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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