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________________ ८ यदि किसी भाईसे कभी कोई गलती हो गई हो तो उसे सुधारकर उनका स्थितीकरण करें और उन्हें अपना वात्सल्य प्रदान करें। ९ मन्दिरो, तीर्थो, पाठशालाओ और शास्त्रभण्डारोकी रक्षा, वृद्धि और प्रभावनाका सदा ध्यान रखा जाय। १०. ग्राम-सेवा, नगर-सेवा, प्रान्त-सेवा और राष्ट्र-सेवा जैसे यशस्वी एव जनप्रिय लोक-कार्योमें भी हमें पीछे नही रहना चाहिए। पूरे उत्साह और शक्तिसे उनमें भाग लेना चाहिए। इन दशसूत्री प्रवृत्तियोंसे हम जहां अपने वर्तमानको सम्हाल सकेंगे वहाँ अपने भावीको भी श्रेष्ठ बना सकेंगे । जो आज बालक और कुमार हैं वे हमारी इन प्रवृत्तियोके बलपर गौरवशाली भावी समाजका निर्माण करेंगे। शिक्षाका महत्त्व शान्तिनाथ दि० जैन सस्कृत-विद्यालयको स्थापना यहाँ शिक्षाके सम्बन्धमें भी कुछ कहना आवश्यक है । आचार्य वादीभसिंहने लिखा है कि 'अनवद्या हि विद्या स्याल्लोकद्वयसुखावहा'-अर्थात निर्दोष विद्या निश्चय ही इस लोक और परलोक दोनो ही जगह सुखदायी है। पूज्य वर्णीजीके हम बहुत कृतज्ञ हैं । वे यदि इस प्रान्तमें शिक्षाका प्रचार न करते, जगह-जगह पाठशालाओं और विद्यालयोकी स्थापना न करते, तो आज जो प्रकाण्ड विद्वान् समाजमें दिखाई दे रहे हैं वे न दिखाई देते । उनसे पूर्व इस प्रान्तमें ही नही. सारे भारतमें भी तत्त्वार्थसूत्रका शुद्ध पाठ करनेवाला विद्वान दुर्लभ था। यह उनका और गुरु गोपालदासजी वरैयाका ही परम उपकार है कि षट्खण्डागम, धवला, जयधवला, समयसार, तत्त्वार्थवात्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अष्टसहस्री, न्यायविनिश्चय जैसे महान् गन्थोके निष्णात विद्वान् आज उपलल्य हैं। अब तो छात्र जैनधर्मके ज्ञाता होनेके साथ लौकिक विद्याओ (कला, व्यापार, विज्ञान, इञ्जिनियरिंग, टैक्नालॉजी आदि) के भी विशेषज्ञ होने लगे हैं और अपनी उभय-शिक्षाओके बलपर ऊँचे-ऊँचे पदोपर कार्य करते हुए देखे जाते हैं। आपके स्थानीय शान्तिनाथ दि० जैन सस्कृत विद्यालयसे शिक्षा प्राप्तकर कई छात्र वाराणसीमें स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और वाराणसेय सस्कृत-विश्वविद्यालयमें उच्च शिक्षा पा रहे है। ये पूज्य वर्णीजी द्वारा लगाये इस विद्यालय-रूपी पौधेके ही सुफल हैं। इस विद्यालयका उल्लेख करते पूज्य वर्णीजीने 'मेरी जीवनगाथा' (पृ० ४४२ प्रथम सस्करण) में लिखा है कि 'मैंने यहाँपर क्षेत्रको उन्नति के लिए एक छोटे विद्यालयको आवश्यकता समझी, लोगोंसे कहा, लोगोंने उत्साहके साथ चन्दा देकर श्रीशान्तिनाथ विद्यालय स्थापित कर दिया। पं० प्रेमचन्द्रजी शास्त्री तेंवखेगवाले उसमें अध्यापक हैं, एक छात्रालय भी साथमें है। परन्तु धनकी त्रुटिसे विद्यालय विशेष उन्नतिन कर सका।' ये शब्द हैं उस महान् सन्तके, जिसने निरन्तर ज्ञानको ज्योति जलायी और प्रकाश किया। वे ज्ञानके महत्त्वको समझते थे, इसीसे उनके द्वारा सस्थापित स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, गणेश सस्कृत महाविद्यालय सागर जैसे दर्जनों शिक्षण-सस्थान चारो ओर ज्ञानका आलोक विकीर्ण कर रहे हैं। वर्णीजीके ये शब्द कि 'धनको त्रटिसे विद्यालय विशेष उन्नति नहीं कर सका'-हम सबके लिये एक गम्भीर चेतावनी है । क्या हम उनके द्वारा लगाये इस पौधेको हरा-भरा नही कर सकते और उनको चिन्ता (धनको त्रुटिको) दूर नही कर सकते? मेरा विश्वास है कि उस निस्पह सन्तने जिस किसी भी सस्थाको स्थापित किया है, उसे आशीर्वाद दिया है वह सस्था निरन्तर बढ़ी है। उदाहरणार्थ स्याद्वाद महाविद्यालयको लीजिए, इसके लिए -३१९ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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