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________________ ८ एक पहाड खनवारा पहाड कहा जाता है, जिसपर पत्थरके बडे खनवारे हैं । सम्भवत यहाँसे मूर्तियोके लिए पत्थर निकाला जाता होगा। ९ मदनेशसागरसरोवरके तटकी पहाडीपर एक विशाल कामेश्वर(मदनेश्वर) का मन्दिर था, जिसके विशाल पत्थरोके अवशेप आज भी वहां देखे जा सकते हैं और वह स्थान अब भी मदनेश्वरके मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। इन निष्कर्षों में कितना तथ्य है, इसकी सूक्ष्म छानबीन होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि उल्लिखित हिन्दी और प्राकृत दोनों 'चौबीस कामदेव-पुराण' प्रकाशमें आयें और उनका गवेषणाके साथ अध्ययन किया जाय । "सिद्धोंकी गुफा" और "सिद्धोंको टोरिया' नामक स्थान अवश्य महत्त्व रखते है और जो बतलाते हैं कि इस भूमिपर साधकोंने तपश्चर्या करके 'सिद्ध' पद प्राप्त किया होगा और इसीसे वे स्थान 'सिद्धोंकी गुफा', 'सिद्धोंको टोरिया' जैसे नामोंसे लोकमें विश्रुत हुए हैं। इस निष्कर्षमें काफी बल है। यदि इसकी पुष्ट साक्षियां मिल जायें तो निश्चय ही यह प्रमाणित हो सकेगा कि यह पावन क्षेत्र जहां काफी प्राचीन है वहाँ अतीतमें सिद्धक्षेत्र भी रहा है और साधक यहां आकर 'सिद्धि' (मुक्ति) के लिए तपस्या करते थे । भले ही उस समय इसका नाम अहार न होकर दूसरा रहा हो । विक्रमकी ११वी-१२वी शतीके मूर्तिलेखोमें इसका एक नाम 'मदनेशसागरपुर' मिलता है । जो हो, यह सब अनुसन्धेय है। मूर्तिलेखोका अध्ययन यहाँके उपलब्ध मूर्तिलेखोका अध्ययन करनेपर कई बातोपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पडता है । उन्हीका यहाँ कुछ विचार किया जाता है । १ पहली बात तो यह है कि ये मूर्तिलेख वि० स० ११२३ से लेकर वि० स० १८८१ तकके हैं । इनके आधारपर कहा जा सकता है कि यहां मन्दिरो और मूर्तियो की प्रतिष्ठाएं वि० स० ११२३ से आरम्भ होकर वि० स० १८८१ तक ७५८ वर्षों तक लगातार होती रही है। २ दूसरी बात यह कि ये प्रतिष्ठाएं एक जाति द्वारा नही, अपितु अनेक जातियो द्वारा कराई गई है । उनके नाम इस प्रकार उपलब्ध होते हैं - खडिल्लवालान्वय (खडेलवाल-ले०७०), गर्गराटान्वय (ले०७१), देउवालान्वय (ले० ६९), गृहपत्यन्वय (गहोई-ले० ८७), गोलापून्विय (ले०६०), जैसवालान्वय (ले०५९), पौरपाटान्वय (ले०४२), मेडवालान्वय (लेख ४१), वैश्यान्वय (ले० ३९), मेहतवालवश (ले० ३३), कुटकान्वय (ले० ३५), लभेचुकान्वय (ले० २८), अवधपुरान्वय (ले० २३), गोलाराडान्वय (ले० १२), श्रीमाधुन्वय (ले० ७), मइडितवालान्वय (ले० २७, यह लेख ३३ में उल्लिखित मेडतवालवश ही जान पडता है), पुरवाहान्वय (ले० १००), पोरवालान्वय (ले० १०२), माथु रान्वय (ले० ५६) । ध्यान रहे कि ब्र'कटमें जो लेख-नम्बर दिये गये हैं वे मात्र उदाहरणके लिए हैं । यो तो एक-एक जातिका उल्लेख कई-कई लेखोमें हुआ है।। इस प्रकार इन लेखों, १९ जातियोका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनमें कईके उल्लेख तो ऐसे है, जिनका आज अस्तित्व ज्ञात नही होता । जैसे गर्गराटान्वय, देउवालाम्वय आदि । इनकी खोज होनी चाहिए। यह भी सम्भव है कि कुछ नाम भट्टारको या ग्रामोके नामपर ख्यात हो। ३ तीसरी बात यह कि इनमें अनेक भट्टारकोके भी नामोल्लेख हैं और जिनसे जान पडता है कि इस प्रदेश में उनकी जगह-जगह गद्दियां थी-प्रतिष्ठाओका सचालन तथा जातियोका मार्गदर्शन वे ही करते थे। - ३१६ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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