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________________ आचार-सम्पन्न उच्च जीवनका तत्कालीन वातावरण एव उस वातावरणमें रहनेवाले लोगोंपर ऐसा असाधारण प्रभाव पहा, जो भारतके धार्मिक इतिहासमें उल्लेखनीय रहेगा । भारतीय संस्कृतिमें आगत कुण्ठा और जडताको दूर करनेके लिए उन्हें भागीरथी प्रयत्न करना पड़ा । पशुबलिका वडा जोर था। स्थान-स्थानपर यज्ञोकी महिमा (अभ्युदय, स्वर्गफल, स्त्री-पुत्र-धनादिका लाभ) बतलाकर उनका आयोजन किया जाता था। यज्ञमें मृत पशुको स्वर्गलाभ होता है और जो ऐसे यज्ञ कराते हैं उन्हें भी स्वर्ग मिलता है। ऐसी विडम्बना सर्वत्र थी। महावीरने इन सबका विरोधकर हिम्मतका कार्य किया। उन्होने अहिंसाका शखनाद फूंका, जिसे प्रबुद्धवर्गने ही नही, कट्टर विरोधियोंने भी सुना और उसका लोहा माना । इन्द्रभूति और उनके सहस्रों अनुगामी अपने विरोधभावको भूलकर अहिंसाके पुजारी हो गये और पशुबलिका उन्होंने स्वय विरोध किया। वैदिक यज्ञोमें होनेवाली अपार हिंसापर महावीरकी अहिंसक विचार-धाराका अद्भुत, जादू जैसा, असर हुआ। महावीरने मनुष्यकी भी बलिका निषेध किया तथा मासभक्षणको निन्द्य एव निषिद्ध बतलाया । मास-भक्षण करनेपर अहिंसाका पालन सम्भव नही है। प्रतीत होता है कि उस समय यज्ञोमें हुत पशुओ या मनुष्यकी बलिसे उत्पन्न मासको धर्म-विहित एक शास्त्रानुमोदित मानकर मक्षण किया जाता था और वेदवाक्योसे उसका समर्थन किया जाता था। महावीरने इसे दढ़तापूर्वक भूल और अज्ञानता बतलायी । दूसरे जीवोंको दुख देकर एव उन्हें मारकर उनके मासको खानेसे धर्म कदापि नही हो सकता । धर्म तो आत्मविकारो (काम-क्रोधादि) का जीतना, इन्द्रियोको वशमें करना, जीवो पर दया करना, दान देना और आत्मचिन्तन करना है। धर्म वह प्रकाश है, जो अपने आत्माके भीतरसे ही प्रकट होता है तथा भीतर और बाहरके अन्धेरेको मिटाता हम अभय प्रदान करता है । हिंसा अन्धकार है और वह अविवेकसे होती है । विचार और आचारमें लोग जितने अधिक अप्रमत्त-सावधान-विवेकवान होगे उतनी ही अधिक अहिंसा, निर्भयता और सम्यक् बुद्धि आयेगी। महावीरने पूर्ण अहिंसाकी प्राप्ति तभी बतलायी, जब मन, वाणो और क्रिया इन तीनोको अप्रमत्त रखा जाये । इसीसे उन्होने स्पष्ट कहा है कि 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा' (त० सू० ६-११) अर्थात् कषायके कारण अपने या दूसरे जीवोंके प्राणोको घात करना हिंसा है। इससे प्रतीत होता हैकि महावीरकी दृष्टि बहत विशाल और गम्भीर थी। वे सृष्टिके प्रत्येक प्राणी को अपने समान मानते थे और इसी से वे 'समभाव' का सदैव उपदेश देते थे। उन्होने सबसे पहले जो आत्मकल्याणकी ओर कदम उठाया और उसके लिए निरन्तर साधना की, उसीका परिणाम था कि उन्हें पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन, पूर्ण वल और पूर्ण सुख प्राप्त हो गया था। तत्पश्चात् उन्होंने ३० वर्ष तक विहार करके जनकल्याण किया। इस अवधिमें उन्होंने जो उपदेश दिये वे प्राणी मात्रके कल्याणकारी थे। उनके उपदेशोका चरम लक्ष्य जीवकी मुक्ति-कर्मवन्धनसे छुटकारा पाना था और समस्त दु खोंसे मुक्त होना था। अपने आचरणको स्वच्छ एव उच्च बनाने के लिए अहिंसाका पालन तथा अपने मन एव विचारोंको शुद्ध और निर्मल बनानेके लिए सर्व समभावरूप 'अनेकान्तात्मक' दृष्टिकोणके अपनानेपर उन्होंने बल दिया। साथ ही हित मित वाणीके प्रयोगके लिए 'स्यावाद' पर भी जोर दिया। महावीरके इन उपदेशोंका स्थायी प्रभाव पडा, जिनकी सशक्त एव जीवन्त परम्परा आज भी विद्यमान है। उनके उपदेशोका विशाल वाड्मय प्राकृत, अपभ्रश, सस्कृत, तमिल, तेलुग, महाराष्ट्री, गुजराती आदि भाषाओंमें निबद्ध देशके विभिन्न शास्त्रभडारोंमें समुपलब्ध है। राजकुमार विधुच्चर, चौर्यकार्यमें अत्यन्त कुशल, अंजन चोर जैसे सहस्रों व्यक्तियोंने -३०४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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