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________________ ही नही थे, वे प्राकृत और सस्कृत भाषाओके प्रौढ कवि भी थे और इन भाषाओमें विविध छन्दों तथा अलकारोमें कविता करनेको विशिष्ट प्रतिभा उन्हें प्राप्त थी। दार्शनिक चिन्तन । कुन्दकुन्दका दार्शनिक चिन्तन आगम, अनुभव और तर्कपर विशेष माधृत है । जब वे किसी वस्तुका विचार करते है तो उसमें सिद्धान्तके अलावा दर्शनका आधार अवश्य रहता है। पचास्तिकायमें कुन्दकुन्दने द्रव्यके लक्षण किये है । एक यह कि जो सत् है वह द्रव्य है तथा सत् उसे कहते हैं जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य : दो पाये जायें । जगतकी सभी वस्तुएँ सत्स्वरूप है और इसीसे उनमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाता है । दूसरा लक्षण यह है कि जो गुणो और पर्यायोका आश्रय है । अर्थात् गुण-पर्याय वाला है। पहला लक्षण जहाँ द्रव्यकी त्रयात्मक शक्तिको प्रकट करता है वहीं दूसरा लक्षण द्रव्यको गुणो और पर्यायोका पुञ्ज सिद्ध करता है तथा उसमे सहानेकान्त और क्रमानेकान्त दो अनेकान्तोको सिद्ध कर सभी वस्तुओको अनेकान्तात्मक बतलाता है । कुन्दकुन्दके इन दोनो लक्षणोको उत्तरवर्ती गृद्धपिच्छ जैसे सभी आचार्योंने अपनाया है । कुन्दकुन्दका दूसरा नया चिन्तन यह है कि आगमोमें जो 'सिया अत्यि' (स्याद् अस्ति-कथचित् है) और 'सिया णत्यि' (स्यान्नास्ति-कथचित् नही है) इन दो भगो (प्रकारो)से वस्तुनिरूपण है । कुन्दकुन्दने उसे सात भगों (प्रकारो) से प्रतिपादित किया है तथा द्रव्यमात्रको सात भग (सात प्रकार) रूप बतलाया है। उनका यह चिन्तन एव प्रतिपादन समन्तभद्र जैसे आचार्योंके लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ । समन्तभद्रने उनकी इस ‘सप्तभगी' को आप्तमीमासा, स्वयम्भूस्तोत्र आदिमें विकसित किया एव विशदतया निरूपित किया है। तात्त्विक चिन्तन कुन्दकुन्दकी उपलब्ध सभी रचनाएं तात्त्विक चिन्तनसे ओतप्रोत हैं । समयसार और नियमसारमें जो शुद्ध आत्माका विशद और विस्तृत विवेचन है वह अन्यत्र अलभ्य है। आत्माके बहिरात्मा, अन्तरात्मा। और परमात्मा इन तीन भेदोका (मोक्षपाहुड ४ से ७) कथन उनसे पहले किसी ग्रन्थमें उपलब्ध नहीं है । सम्यग्दर्शनके आठ अगोका निरूपण (स० सा० २२९-२३६), अणुमात्र राग रखने वाला सर्वशास्त्रज्ञ भी स्वसमयका ज्ञाता नही (पचा० १६७), जीवको सर्वथा कर्मबद्ध अथवा कर्म-अबद्ध बतलाना नय पक्ष (एकान्तवाद) है और दोनोका ग्रहण करना समयसार है (स सा १४१-१४३), तीर्थकर भी वस्त्रधारी हो तो सिद्ध नहीं हो सकता (द० पा० २३) आदि तात्त्विक विवेचन कुन्दकुन्दकी देन है । लोक कल्याणी दृष्टि कुन्दकुन्दकी दृष्टिमें गुण कल्याणकारी हैं, देह, जाति, कुल आदि नही । (द पा २७) आदि निरूपण भी उनकी प्रशस्त देन है । इस प्रकार मनुष्यमात्रके हितका मार्ग उन्होंने प्रशस्त किया है । --२९५
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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