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________________ कुन्दकुन्दने ८४ पाहुहो (प्राभृतौ-प्रकरणग्रन्यो) तथा आचार्य पुष्पदन्त-भूतबली द्वारा रचित 'पट्खण्डागम' आर्ष ग्रन्थकी विशाल टीकाकी भी रचना की थी। पर आज वह सब ग्रन्थ-राशि उपलब्ध नहीं है। फिर भी जो ग्रन्थ प्राप्त है उनसे जैन वाड्मय समृद्ध एव देदीप्यमान है । उनकी इन उपलब्ध कृतियोका सक्षिप्त परिचय दिया जाता है १ प्रवचनसार-इसमें तीन अधिकार हैं-(१) ज्ञानाधिकार, (२) ज्ञेयाधिकार और (३) चारित्राधिकार । इन अधिकारोमें विषयोके वर्णनका अवगम उनके नामोसे ज्ञात हो जाता है। अर्थात पहले अधिकारमै ज्ञानका, दूसरेमें ज्ञेयका और तीसरेमें चारित्र (साध-चारित्र) का प्रतिपादन है। इस एक ग्रन्थके अध्ययनसे जैन तत्त्वज्ञान अच्छी तरह अवगत हो जाता है। इसपर दो व्याख्याएँ उपलब्ध हैं-एक आचार्य अमृतचन्द्रकी और दूसरी आचार्य जयसेनकी। अमृतचन्द्रकी व्याख्यानुसार इसमें २७५ (९२ + १०८+७५) गाथाएँ हैं और जयसेनकी व्याख्याके अनुसार इसमें ३१७ गाथाएं हैं । यह गाथाओकी सख्याकी भिन्नता व्याख्याकारोको प्राप्त न्यूनाधिक सख्यक प्रतियोके कारण हो सकती है। यदि कोई अन्य कारण रहा हो तो उसकी गहराईसे छानबीन की जानी चाहिए । ये दोनो व्याख्याएँ सस्कृतमें निबद्ध हैं और दोनो ही मूलको स्पष्ट करती हैं । उनमें अन्तर यही है कि अमृतचन्द्रकी व्याख्या गद्य-पद्यात्मक है और दुरूह एव जटिल है । पर जयसेनकी व्याख्या सरल एव सुखसाध्य है । तथा केवल गद्यात्मक है । हां, उसमें पूर्वाचार्योंके उद्धरण प्राप्त हैं । २ पचास्तिकाय-इसमे दो श्रुतस्कन्ध (अधिकार) है-१ पढ्द्रव्य-पचास्तिकाय और २ नवपदार्थ । दोनोके विषयका वर्णन उनके नामोसे स्पष्ट विदित है । (इसपर भी उक्त दोनो आचार्योकी सस्कृतमे टीकाएं है और दोनों मूलको स्पष्ट करती है । पहले श्रुतस्कन्धमे १०४ और दूसरेमें आचार्य अमृतचन्द्रके अनुसार ६८ तथा जयसेनाचार्यके अनुसार ६९ कुल १७२ या १७३ गाथाएँ है। 'मग्गप्पभावण?' यह (१७३ सख्यक) गाथा अमृतचन्द्रकी व्याख्यामें नहीं है किन्तु जयसेनकी व्याख्यामें है। यह गाथा-सख्याकी न्यूनाधिकता भी व्याख्याकारोको प्राप्त न्यूनाधिकसख्यक प्रतियोका परिणाम जान पडता है । ३ समयसार-इसमें दश अधिकार है-१ जीवाजीवाधिकार, २ कत कर्माधिकार, ३ पुण्यपापाधिकार, ४ आस्रवाधिकार, ५ सवराधिकार, ६ निर्जराधिकार, ७ बन्धाधिकार, ८ मोक्षाधिकार, ९ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार और १० स्याद्वादाधिकार । इन अविकारोके नामसे ही उनके विषयोका ज्ञान हो जाता है । (अन्तिम अधिकार व्याख्याकार आचार्य अमृतचन्द्रद्वारा अभिहित है, मूलकार आचार्य कुन्दकुन्दद्वारा रचित नही है। अमृतचन्द्रको इस अधिकारको रचनेकी गावश्यकता इसलिए पडी कि समयसारका अध्येता पूर्व अधिकारोमें वर्णित निश्चय और व्यवहारनयोकी प्रधान एव गौण दृष्टिसे समयसारके अभिधेय आत्मतत्त्वको समझे और निरूपित करे । इसीसे उन्होंने स्याद्वादाधिकारमें स्याद्वादके वाच्य-अनेकान्तका समर्थन करनेके लिए तत्-अतत्, सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक नयो (दृष्टियो) से आत्मतत्त्वका विवेचन किया है। अन्तमें कलश काव्योमें इसी तथ्यको स्पष्टतया व्यक्त किया है। समयसारपर भी उक्त दोनो आचार्योंकी सस्कृत-व्याख्याएं हैं, जो मूलके हार्दको बहुत उत्तम ढगसे स्पष्ट करती है । अमृतचन्द्रने प्रत्येक गाथापर बहुत सुन्दर एव प्रौढ़ कलशकाव्य भी रचे हैं, जो आचार्य कुन्दकुन्दके गाथा-मन्दिरके शिखरपर चढे कलशकी भौति सुशोभित होते है । अनेक विद्वानोने इन समस्त कलशकाव्योको 'समयसार-कलश'के नामसे पुस्तकारुढ करके प्रकाशित भी किया है । समयसार और समयसार-कलशके हिन्दी आदि भाषाओंमें अनुवाद भी हुए हैं, जो इनकी लोकप्रियताको प्रकट करते है। इसमें ४१५ गाथाएँ है। यह समयसार (समयप्राभृत) तत्त्वज्ञानप्रपूर्ण है। -२९२
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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