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________________ गजपन्थ तीर्थ क्षेत्रका एक अति प्राचीन उल्लेख 'अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७-८ मे प्रसिद्ध साहित्य-सेवी प. नाथुराम प्रेमीका 'गजपन्य क्षेत्रके पराने उल्लेख' शीर्षकसे एक सक्षिप्त किन्तु शोधात्मक लेख प्रकट हुआ है । इसमें आपने गजपन्थ क्षेत्रके अस्तित्वविषयक दो पुराने उल्लेख प्रस्तुत किये हैं और अपने उस विचारमें सशोधन किया है, जिसमें आपने गजपन्थ क्षेत्रको आधुनिक बतलाया था। आपने अपनी उस समयकी खोजके आधारपर उसे विक्रम स०.१७४६ के पहलेका स्वीकार नही किया था। अब जो उन्हें दो उल्लेख उस विपयके प्राप्त हुए हैं वे वि० स० १७४६ से पूर्ववर्ती हैं। उनमें एक तो श्रुतसागर सूरिका है, जो १६वी शताब्दीके वहश्रुत विद्वान् एव ग्रन्थकार माने जाते हैं। दूसरा उल्लेख 'शान्तिनाथचरित के कर्ता असग कविका है, जिनका समय उनके 'महावीरचरित' परसे शक स० ९१०, वि० स० १०४५ सर्व मम्मत है । असग कविने अपने 'शान्तिनायचरित' में गजपन्थ क्षेत्रका उसके ७ वें सर्गके ९८ वें पद्यमे उल्लेख किया है। 'शान्तिनाथचरित' 'महावीरचरित' के उपरान्त लिखा गया है। अत वि० स० १०४५ के लगभग गजपन्थ क्षेत्र एक निर्वाण क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध था और वह नासिक नगरके निकटवर्ती माना जाता था। इन दो उल्लेखोके आधारसे अनुसन्धानप्रिय श्री प्रेमीजीने गजपन्थ क्षेत्रकी प्रामाणिकता स्वत स्वीकार कर ली है और उसे ११ वी शताब्दीमें प्रसिद्ध सिद्ध-क्षेत्र मान लिया है। डॉ. हीरालालजी जैनके साथ चल रही 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार' की चर्चाके प्रसगमें हम पूज्यपादकी 'नन्दीश्वर-भक्ति' को देख रहे थे। उसो समय 'दशभक्त्याविसंग्रह' के पन्ने पलटते हुए उनकी 'निर्वाणभक्ति' के उस पद्यपर हमारी दृष्टि गयो, जिसमें पूज्यपादने भी अन्य निर्वाण-क्षेत्रोका उल्लेख करते एह 'गजपन्थ क्षेत्रका भी उल्लेख किया है और उसे निर्वाण-क्षेत्र प्रकट किया है । वह पद्य इस प्रकार है सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । ये साधवो हतमला सुगति प्रयाता स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥ यहाँ पूज्यपादने 'गजपथे' पदके द्वारा गजपन्थागिरिका निर्वाणक्षेत्रके रूपमें स्पष्ट उल्लेख किया है। 'गजपथ' शब्द सस्कृतका है और 'गजपथ''प्राकृत तथा अपभ्रशका है और यही शब्द हिन्दी भाषामें भी प्रयुक्त किया जाता है । अतएव 'गजपथ' और 'गजपन्थ' दोनो एक ही हैं और एक ही अर्थ 'गजपथ' के वाचक एवं बोधक है। पूज्यपादका समय ईसाकी ५वी और वि० स० की ६वी शताब्दी है। प्रेमीजी भी उनका यही समय मानते हैं। अत गजपन्ध क्षेत्र वि० स० की ६वी शताब्दीमें निर्वाणक्षेत्र के रूपमें प्रसिद्ध था और माना जाता था । अर्थात् असग कवि (११वी शताब्दी) से भी वह ५०० वर्ष पूर्व निर्वाणक्षेत्रके रूपमें दिगम्बर परम्परामें मान्य था। १ जैन साहित्य और इतिहास, हमारे तीर्थ क्षेत्र' शीर्षक लेख पृ० १८५, १९४२ प्रथम संस्करण । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ११९, ई० १९४२ ।। - २८२ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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