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________________ 'राजगृहनगरके पूर्वमें चतुष्कोण ऋषिशैल (ऋष्यद्रि), दक्षिणमें वैभार और नैऋत्यदिशामें विपुलाचल पर्वत हैं । ये दोनो वैभार और विपुलाचल पर्वत त्रिकोण आकृतिसे युक्त हैं। पश्चिम, वायव्य और सोम (उत्तर) दिशामें फैला हुआ धनुषके आकार छिन्न नामका पर्वत है और ईशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है । उपयुक्त पाँचो ही पर्वत कुशसमूहसे आच्छादित है । हरिवशपुराणमें इन पांचो पर्वतोका निम्न प्रकार उल्लेख है ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्र सनिर्झर । दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभ भूषयत्यलम् । वैभारो दक्षिणामाशा त्रिकोणाकृतिराश्रित । दक्षिणापरदिड्मध्य विपुलश्च तदाकृति ॥ सज्जचापाकतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहक । शोभते पाडुको वृत्त पूर्वोत्तरदिगन्तरे ॥३ ५३ से ३-५५॥ इन पद्यो द्वारा हरिवशपुराणकारने 'तिलोयपण्णत्ती' की तरह उक्त पांचो पर्वतोंके नाम और उनकी अवस्थिति बतलायी है। वीरसेनस्वामीने भी धवला और जयधवलामें उनका निम्न प्रकार कथन किया है ऋषिगिरिरैन्द्राशाया चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभार । विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणी स्थिती तत्र । धनुराकारश्छिन्नो वारुण-वायव्य-सोमदिक्षु तत । वृत्ताकृतिरीशाने पाडुस्सर्वे कुशाग्रवृता ।। -धवला (मु०), पृ० ६२, जयधवला (मु०), पृ० ७३ । इन तीनो-चारो स्थानोमें ऋषिगिरि (ऋष्यद्रिक), वैभार, विपुलगिरि, बलाहक (छिन्न) और पाण्डगिरि इन पांच पर्वतोका समुल्लेख किया गया है और उनकी स्थिति बतलायी गयी है । यहाँ ध्यातव्य है कि बलाहकको छिन्न भी कहा गया है। अत ये एक ही पर्वतके दो नाम है और ग्रन्थकारोने उसका छिन्न अथवा बलाहक नामसे उल्लेख किया है। जिन्होने बलाहक नाम दिया है उन्होने 'छिन्न' नाम नहीं दिया और जिन्होने 'छिन्न' नाम दिया है उन्होने 'बलाहक' नाम नहीं दिया और उसका अवस्थान सभीने एक-सा बतलाया है तथा उसकी गिनती पच पहाडोमें की है, जो राजगृहके निकट है। अत बलाहक और छिन्न ये दोनो पर्यायवाची नाम हैं। इसी तरह ऋष्यद्रिक, ऋषिगिरि और ऋषिशल ये भी एक ही पर्वतके तीन पर्यायनाम हैं। ___ इसी प्रकार यह मी ध्यातव्य है कि जिन वीरसेन और जिनसेन स्वामीने पाण्डुगिरिका नामोल्लेख किया है उन्होने कुण्डलगिरिका उल्लेख नही किया । तथा पूज्यपादने जहां सभी निर्वाणक्षेत्रोको गिनाते हुए कुण्डलगिरिका नाम दिया है वहां उन्होने पाण्डुगिरिका उल्लेख नही किया। यतिबुषभने अवश्य दोनो नामोका प्रयोग किया है। पर उन्होने बिभिन्न स्थानोपर किया है। जहाँ (प्रथम अधिकार, गा० ६७ में) पाण्डगिरिका उल्लेख हआ है वहाँ कुण्डलगिरिका नही और जहाँ (४-१४७९) कुण्डलगिरिका उल्लेख है वहां फिर पाण्डुगिरिका नही । इससे स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि उन्हें दो स्वतन्त्र पहाड माननेकी नही है, अपितु वे एक ही पर्वतके उन्हें दो पर्यायनाम मानते हैं। वास्तवमें पाण्डुगिरिको वृत्ताकार (गोलाकार) कहा गया है और कुण्डलगिरि कुण्डलाकार-वृत्ताकार होता है । अतएव एक ही पर्वतके ये दो पर्यायनाम हैं और -२७९
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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