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________________ काटेंगे, तब उस परीषहके सहन करनेका उसके लिए प्रश्न ही नही उठता । सचेल श्रुतमें उसका निर्देश मात्र पूर्वपरम्पराका स्मारक भर है। उसकी सार्थकता तो अचेल श्रुतमें ही सभव है। अत ये (नान्यपरीषह, दशमणकपरीषह और स्त्री - परीषह ) तीनो परीषह तत्त्वार्थसूत्र में पूर्ण निर्ग्रन्थ (नग्न) साधुकी दृष्टिसे अभिहित हुए हैं । अत 'तत्त्वार्थ सूत्रकी परपरा' निबन्धमें जो तथ्य दिये गये हैं वे निर्बाध हैं और वे उसे दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ प्रकट करते है । उसमें समीक्षक द्वारा उठायी गयी आपत्तियोमेंसे एक भी आपत्ति बाधक नही है, प्रत्युत वे सारहीन सिद्ध होती हैं । समीक्षाके अन्त में हमें कहा गया है कि 'अपने धर्म और सप्रदायका गौरव होना अच्छी बात है, किन्तु एक विद्वान् से यह भी अपेक्षित है कि वह नीर-क्षीर विवेकसे बौद्धिक ईमानदारी पूर्वक सत्यको सत्यके रूपमें प्रकट करे । के अच्छा होता, समीक्षक समीक्ष्य ग्रन्थकी समीक्षाके समय स्वय भी उसका पालन करते और 'उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परामें थे और उनका सभाप्य तत्त्वार्थ सचेल पक्षके श्रुतके आधारपर ही वना है ।' 'वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परामें हुए, दिगम्बरमें नही ।' ऐसा कहनेवालोके सम्बन्धमें भी कुछ लिखते और उनके सत्यकी जांच कर दिखाते कि उसमें कहाँ तक सचाई, नीर-क्षीर विवेक एव बौद्धिक ईमानदारी है । उपसहार वास्तव में अनुसंधान में पूर्वाग्रहकी मुक्ति आवश्यक है । हमने उक्त निबन्ध में वे तथ्य प्रस्तुत किये हैं जो अनुसन्धान करनेपर उपलब्ध हुए हैं । - २७५ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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