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________________ चर्या विविक्तमें नही हो सकती। मार्गमें जब साधु गमन करता है तो उसमें उसे मार्गजन्य कष्ट तो हो सकता है और उसे सहन करनेसे उसे परोपहजय कहा जा सकता है। किन्तु उसमें विविक्तपना नहीं हो सकता और इसलिए उन्होने विविक्तचर्या तप नही बतलाया। शय्या और आसन दोनों एकान्तमें हो सकते है । अतएव उन्हें विवियतशय्यासन नाममे एक तपके रुपमें बाह्य तपोंमें भी परिगणित किया गया है । सम्पादकजी मक्ष्म विचार करेंगे, तो उनमें स्पष्टतया अर्थभेद उन्हें ज्ञात हो जायेगा। प० सुखलालजीने चर्या और शय्यामन में अर्थ भेद स्वीकार किया है। उन्होने स्पष्ट लिखा है कि 'स्वीकार किये धर्मजीवनको पुष्ट रसनेके लिए मसग होकर भिन्न-भिन्न स्थानोमे विहार और किसी भी एक स्थानमें नियत वास स्वीकार न करना चर्या परीपह है।' 'आमन लगाकर बैठे हए ऊपर यदि भयका प्रमग आ पडे तो उसे अकम्पित भावसे जीतना किंवा आसनमे च्युत न होना निषद्या परीपह है जगहमें समभावपूर्वक शयन करना शय्यापरीपह है ।' आशा है मम्पादकजी चर्या, शय्या और आसनके पण्डितजी द्वारा प्रदरित अर्यभेदको नही नकारेंगे और उनके भेदको स्वीकारेंगे । तत्त्वार्थसूत्रमे तीर्थकर प्रकृतिके १६ वन्धकारण तत्त्वार्थसूत्रमे परम्पराभेदकी एक और महत्त्वपूर्ण वातको उसी निवन्यमें प्रदर्शित किया है। हमने लिखा है कि श्वेताम्बर श्रुतमे तीर्थकर प्रकृतिके २० वन्यकारण बतलाये है और इसमें ज्ञातृधर्मकथागसूत्र (८-६४) तया नियुक्तिकार भद्रबाहुकी मावश्यफनियुक्तिको चार गाथाएं प्रमाणरूपमें दी है। किन्तु तत्त्वार्यसूत्रमे तीर्थकर प्रकृतिके १६ ही कारण निदिष्ट है, जो दिगम्बर परम्पराके प्रसिद्ध आगम 'पट्खण्डागम (३-१४) के अनुसार हैं और उनका वही क्रम तथा वे ही नाम हैं।' इसकी भी उन्होने समीक्षा की है। लिखा है कि 'प्रथम तो यह कि तत्त्वार्थ एक सूअग्रन्थ है, उसकी शैली सक्षिप्त है । दूसरे,तत्त्वार्थमूषकारने १६ की संख्याका निर्देश नही किया है, यह लिखने के बाद तत्त्वार्थसूत्रमें सचेल श्रुतपना सिद्ध करने के लिए पुन लिखा है कि 'आवश्यकनियुक्ति और ज्ञातधर्मकथामें जिन बीस बोलोका उल्लेख है उनमें जो ४ वातें अधिक है वे हैं-धर्मकथा, सिद्धभक्ति, स्थविरभक्ति (वात्सल्य), तपस्वी-वात्सल्य और अपूर्वज्ञानग्रहण। इनमेसे कोई भी बात ऐसी नही है, जो दिगम्बर परम्पराको अस्वीकृत रही हो, इसलिए छोड दिया हो, यह तो मान उसकी सक्षिप्त शैलीका परिणाम है ।' इस सम्बन्धमें हम समीक्षकसे पूछते हैं कि ज्ञातधर्मकथासत्र भी सूत्रगन्थ है, उसमें बीस कारण क्यो गिनाये, तत्त्वार्थमूत्रकी तरह उसमें १६ ही क्यो नही गिनाये, क्योकि सूत्रग्रन्थ है और सूत्रग्रन्थ होनस उसकी भी शैली सक्षिप्त है । तत्त्वार्थसूत्रमें १६ को सख्याका निर्देश न होनेकी तरह ज्ञातृधर्मकथासूत्रम भी २० की सख्याका निर्देश न होनेसे क्या उसमें २०के सिवाय और भी कारणोका समावेश है ? इसका उत्तर समीक्षकके पास नही है। वस्तुत तत्त्वार्थसममें सचेलश्रतके आधारपर तीर्थकर प्रकृतिके बन्धकारण नहीं बतलाये, अन्यथा आवश्यकनियुक्तिकी तरह उसमें ज्ञातधर्मकथासूत्र के अनुसार वे ही नाम और वे ही २० सख्यक कारण प्रतिपादित होते । किन्तु उसमें दिगम्बर परम्पराके षट्खण्डागम' के अनुसार वे ही नाम और उतनी ही १६ की सख्याको लिए हुए बन्धकारण निरूपित है। इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर १ त० स०, विवेचन सहित, ९-९, पृ० ३४८ । २ जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परि०, पृ० ७९-८० । ३. षट्ख०, ३-४०, ४१ पुस्तक ८, पृ० ७८-७९ । -२७२
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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