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________________ को छोडकर उन्होने उसे मात्र श्वेताम्बर परम्पराका प्रकट किया तथा यह कहते हए कि 'उमारवाति श्वेताम्बर परम्पराके थे और उनका सभाष्य तत्त्वार्थ सचेल पक्षके श्रुतके आधार पर ही बना है।'-'वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परामें हुए, दिगम्बरमें नही ।' नि सकोच तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ताको श्वेताम्बर होनेका अपना निर्णय भी दे दिया है।" इसके बाद प० परमानन्दजी शास्त्री, प० फूलचन्द्र जी शास्त्री प० नाथूरामजी प्रेमी' जैसे कुछ दिगम्बर विद्वानोने भी तत्त्वार्थसूत्रकी जाच की। इनमें प्रथमके दो विद्वानोंने उसे दिगम्बर और प्रेमीजीने यापनीय ग्रथ प्रकट किया। हमने भी उसपर विचार करना उचित एव आवश्यक समझा और उसीके फलस्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी मूल परम्परा खोजने के लिए उक्त निवन्ध लिखा। अनुसन्धान करने और साधक प्रमाणोके मिलनेपर हमने उसकी मूल परम्परा दिगम्बर बतलायी। समीक्षकने उन्हें निरस्त न कर मात्र व्याख्यान दिया है। किन्तु व्याख्यान समीक्षा नही कहा जा सकता, अपितु वह अपने पक्षका समर्थक कहा जायेगा। परम्पराभेदका सूचक अन्तर तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्दके ग्रन्थोमें प्रतिपादित नयो और गृहस्थके १२ व्रतो वैचारिक या विवेचन पद्धतिका अन्तर है। ऐसा मतभेद परम्पराकी भिन्नताको प्रकट नही करता। समन्तभद्र, जिनसेन और सोमदेवके अष्टमूलगुण भिन्न होनेपर भी वे एक ही (दिगम्बर) परम्पराके हैं। पात्रभेद एव कालभेदसे उनमें ऐसा विचार-भेद होना सम्भव है। विद्यानन्दने अपने ग्रन्थों में प्रत्यभिज्ञानके दो भेद माने हैं और अकलक, माणिक्यनन्दि आदिने उसके अनेक (दोसे ज्यादा) भेद बतलाये हैं। और ये सभी दिगम्बर आचार्य हैं। पर तत्त्वार्थसूत्र और सचेलध्रुतमें ऐसा अन्तर नही है। उनमें मौलिक अन्तर है, जो परम्परा भेदका सूचक है। ऐसे मौलिक अन्तरको ही हमने उक्त निबन्धमें दिखाया है। सक्षेपमें उसे यहा दिया जाता है तत्त्वार्थसूत्र • १ अदर्शनपरीषह, ९-९-१४ दसणपरीसह, सम्मत्तपरीसह (उत्तरा० सू० पृ०८) २ एक साथ १९ परीषह, ९-१७ एक साथ बीस परीषह, उत्तरा० त०, जैना० पृ २०८ ३ तीर्थंकर प्रकृतिके १६ बधकारण, ६-२४ तीर्थकर प्रकृतिके २० बधकारण (ज्ञात सू०८-६४) ४ विविक्तशय्यासन तप, ९-१९ सलीनता तप, (व्याख्या प्र० स० २५१७-८) ५ नाग्न्यपरीषह, ९-९ अचेलपरीषह (उत्तरा० सू०, पृ० ८२ ६ लौकान्तिक देवोंके ८ भेद ४-४२ लौकान्तिक देवोके ९ भेद (ज्ञात०, भगवती०) सचेल अत यह ऐसा मौलिक अन्तर है, जिसे श्वे. आचार्योंका मतभेद नहीं कहा जा सकता। वह तो स्पष्टतया परम्पराभेदका प्रकाशक है। नियुक्तिकार भद्रबाहू या अन्य श्वेता० आचार्योंने सचेल श्रु तका पूरा अनुगमन किया है, पर तत्त्वार्थसूत्रकारने उसका अनुगमन नही किया। अन्यथा सचेलश्रुत विरुद्ध उक्त प्रकारका कथन तत्त्वार्थसूत्र में न मिलता। १ अनेकन्त, वर्ष, ४ कि० १ । २ वही, वर्ष ४ कि० ११-१२ तथा वर्ष ५ कि० १-२ । ३ जैन साहित्यका इतिहास, पृ०५३३, द्वि स., १९५६ । -२७० -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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