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________________ गतियोमें विभिन्न प्रतिपादन किये हैं। किन्तु अभ्यन्तर साधन सभी (चारो) गतियोमें दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमको ही बतलाया है । यथा 'साधन द्विविध अभ्यन्तर बाह्य च । अभ्यन्तर दर्शनमोहस्योपशम. क्षय क्षयोपशमो वा। बाह्य नारकाणा प्राक्चतुर्थ्या सम्यग्दर्शनस्य साधन केषाचिज्जातिस्मरण केषाञ्चिद्धर्मश्रवण केषाञ्चिद्वेदनाभिभव । चतुर्थीमारम्य आ सप्तम्या नारकाणा जातिस्मरण वेदनाभिभवश्च । तिरश्चा केषाञ्चिज्जातिस्मरण केषाश्चिद्धर्मश्रवण केषाञ्चिज्जिनबिम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव ।-स०सि० ए० २६, भा० ज्ञा० पी० सस्क० । आचार्य अकलङ्कादेवने भी तत्त्वार्थवात्तिक (१-७) मे लिखा है कि 'दर्शनमोहोपशमादि साधन बाह्य चोपदेशादि स्वात्मा वा।' अर्थात सम्यक्त्वका अभ्यन्तर साधन दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षय और क्षमोयशम है तथा वाह्य साधन उपदेशादि है और उपादानकारण स्वात्मा है। इन दो आचार्योंके निरूपणोंसे प्रकट है कि सम्यक्त्वका अभ्यन्तर (अन्तरग) निमित्त दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय, क्षयोपशम और उपशम है । जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुष सम्यक्त्वके अभ्यन्तर निमित्त (हेतु) नही हैं। वास्तवमें जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुष जिनसूत्रकी तरह एकदम पर (भिन्न) है। वे अन्तरग हेतु उपचारसे भी कदापि नही हो सकते । क्षायिक सम्यग्दर्शनकी आवारक दर्शनमोहनीय कर्मकी क्षपणाका प्रारम्भ केवली द्विक (केवली या श्रुतकेवली) के पादसान्निध्यमे होनेका जो सिद्धान्तशास्त्रमें कथन है उसीको लक्ष्यमें रखकर गाथामे जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुर्षोंको भी सम्यक्त्वका बाह्य निमित्तकारण कहा गया है। उन्हें अन्तरग कारण बताना सिद्धान्त-विरुद्ध है। तथा उनके साथ दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयादिका हेतू रूपमें सम्बन्ध जोडना तो एकदम गलत और अनुपयुक्त है । वस्तुत सम्यक्त्वके उन्मुख जीवोमें ही होनेवाला दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय, क्षयोपशम या उपशम उनके सम्यक्त्वका अन्तरग हेतु है और जिनसूत्रश्रवण या उसके ज्ञाता पुरुषोका सान्निध्य बाह्यनिमित्त है। कुन्दकुन्द-भारतीके सम्पादक द्वारा सम्पुष्टि कुन्दकुन्द-भारतीके सम्पादक डॉ० प० पन्नालालजी साहित्याचार्यने भी उक्त गाथा (५३) का वही अर्थ किया है जो हमने ऊपर प्रदर्शित किया है। उन्होने लिखा है 'सम्यक्त्वका बाह्य निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तया अन्तरग निमित्त दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय आदि कहा गया है।' इसका भावार्थ भी उन्होने दिया है। वह भी द्रष्टध्य है। उसमें लिखा है कि 'निमित्त कारणके दो भेद है-१ बहिरग निमित्त और २ अन्तरगनिमित्त। सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बहिरग निमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरग निमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यत्व, सम्यङ्गमिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वप्रकृति एव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियोंका उपशम, क्षय और क्षयोपशमका होना है। बहिरग निमित्तके मिलनेपर कार्यकी सिद्धि होती भी है और नही भी होती। परन्तु अन्तरगनिमित्तके मिलनेपर कार्यकी सिद्धि नियमसे होती है ॥५३॥'-वही, पृ० २०७। -२५७
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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