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________________ (४) आक्षेप - यदि ८९, ९०, ९१ सूत्रोको भाववेदी पुरुषके मानोगे तो वैसो अवस्थामें ८९ वें सूत्रमे 'असजद - सम्माइट्ठि - ट्टाणे' यह पद है उसे हटा देना होगा, क्योकि भाववेदी मनुष्य द्रव्यस्त्री भी हो सकता है उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गुणस्थान नही बन सकता है। इसी प्रकार ९० वे सूत्रमें जो 'सजदट्टाणे' पद है उसे भी हटा देना होगा । कारण, भाववेदी पुरुष और द्रव्यस्त्रीके सयत गुणस्थान नही हो सकता है । इसलिए यह मानना होगा कि उक्त तीनो सूत्र द्रव्यमनुष्य के ही विधायक हैं, भावमनुष्य के नही ? (४) परिहार -- पण्डितजीने इस आक्षेप द्वारा जो आपत्तियाँ बतलाई है वे यदि गम्भीर विचारके साथ प्रस्तुत की गई होती तो पण्डितजी उक्त परिणामपर न पहुँचते । मान लीजिये कि ८९ वें सूत्र में जो 'असजदसम्माइट्ठिट्ठाणे' पद निहित है वह उसमें नही है तो जो भाव और द्रव्य दोनोंसे मनुष्य ( पुरुष ) है उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गुणस्थान कौनसे सूत्रसे प्रतिपादित होगा ? इसी प्रकार मान लीजिये कि ९० वें सूत्रमें जो 'सजद द्वाणे' पद है वह उसमें नही है तो जो भाववेद और द्रव्यवेद दोनोसे ही पुरुष है उसके पर्याप्त अवस्थामें १४ गुणस्थानोका उपपादन कौनसे सूत्रसे करेंगे ? अतएव यह मानना होगा कि ८९व सूत्र उत्कृष्टतासे जो भाव और द्रव्य दोनोसे ही मनुष्य ( पुरुष ) है, उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे गुणस्थानका प्रतिपादक है और ९० वाँ सूत्र, जो भाववेद और द्रव्यवेद दोनोसे पुरुष है अथवा केवल द्रव्यवेदसे पुरुष है उसके पर्याप्त अवस्थामें १४ गुणस्थानोका प्रतिपादक है । ये दोनो सूत्र विषयकी उत्कृष्ट मर्यादा अथवा प्रधानताके प्रतिपादक हैं, यह नही भूलना चाहिये और इसलिए प्रस्तुत सूत्रोको भावप्रकरणके माननेमें जो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं ठीक नहीं हैं । सर्वत्र 'इष्ट सम्प्रत्यय' न्यायसे विवेचन एव प्रतिपादन किया जाता है । साथमें जो विपयकी प्रधानताको लेकर वर्णन हो उसे सब जगह यह कि ८९ व सूत्र भाववेदी मनुष्य द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे नही है, है । इसी प्रकार ९० व सूत्र भाववेदी पुरुष और द्रव्यवेदी पुरुष अपेक्षासे है और चूंकि यह सूत्र पर्याप्त अवस्थाका है इसलिए जिस प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्य और भाव पुरुषो तथा स्त्रियोके चौथा गुणस्थान सभव है उसी प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्यवेदमे तथा भावबेदसे पुरुष और केवल द्रव्यवेदी पुरुषके १४ गुणस्थान इस सूत्रमें वर्णित किये गये है । सम्बन्धित नही करना चाहिए। तात्पर्य किन्तु भाव और द्रव्य मनुष्यकी अपेक्षा तथा गौणरूपसे केवल द्रव्यवेदी पुरुषकी इस तरह पण्डितजीने द्रव्यप्रकरण सिद्ध करनेके लिए जो भावप्रकरण-मान्यता में आपत्तियां उपस्थित की हैं उनका सयुक्तिक परिहार हो जाता है । अत पहली युक्ति द्रव्य - प्रकरणको नही साधती । और इसलिए ९३ व सूत्र द्रव्यस्त्रियोके पाँच गुणस्थानोका विधायक न होकर भावस्त्रियोके १४ गुणस्थानोका विधायक है । अतएव ९३ वें सूत्र में 'सजद' पदका विरोध नही है । ऊपर यह स्पष्ट हो चुका है कि पट्खण्डागमका प्रस्तुत प्रकरण द्रव्यप्रकरण नही है, भावप्रकरण है । अब दूसरी आदि शेष युक्तियोपर विचार किया जाता है । २ यद्यपि षट्खण्डागममें अन्यत्र कही द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोका कथन उपलब्ध नही होता, परन्तु इससे यह सिद्ध नही होता कि इस कारण प्रस्तुत ९३ व सूत्र ही द्रव्यस्त्रियोके गुणस्थानोका विधायक एव प्रतिपादक है क्योकि उसके लिए स्वतन्त्र हो हेतु और प्रमाणोकी जरूरत है, जो अब तक प्राप्त नही हैं और जो प्राप्त हैं वे निराबाध और सोपपन्न नही हैं और विचार कोटिमें है— उन्हीपर यहाँ विचार चल रहा है । अत प्रस्तुत दूसरी युक्ति ९३ वे सूत्र में 'सजद' पदकी अस्थितिकी स्वतन्त्र साधक प्रमाण नही है । , विद्वानोंके लिए यह विचारणीय अवश्य है कि षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोका - २४७ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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