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________________ द्रव्यमनुष्यके चौथा गुणस्थान भी अपर्याप्त अवस्थामें हो सकता है। परन्तु इस सूत्रमें चौथा गुणस्यान नही बताया है, केवल दो ही (पहला और दूसरा) गुणस्थान बताये गये हैं । इससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि यह ९२| सूत्र द्रव्यस्त्रीका ही निरूपक है ? (१) परिहार-प० जीकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती है कि भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्यके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गुणस्थान होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य हो सकता है और इसलिए ९३वे सूत्रकी तरह ९२वें सूत्रको भावस्त्रीका निरूपण करनेवाला माननेपर सूत्रमें पहला, दूसरा और चौथा इन तीन गुणस्थानोको बताना चाहिये था। केवल पहले व दूसरे इन दो ही गुणस्थानोको नही ? इसका उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव, जो द्रव्य और भाव दोनोसे मनुष्य होगा उसमें पैदा होता है-भावसे स्त्री और द्रव्यमे मनुष्य में नहीं, क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव समस्त प्रकारको स्त्रियोमें पैदा नही होता। जैसा पण्डितजीने समझा है. अधिकाश लोग भी यही समझते है कि सम्यग्दष्टि के द्रव्यस्त्रियो-देव, तिर्यञ्च और मनुष्य द्रव्यस्त्रियोमे ही पैदा नही होता, भावस्त्रियोमे तो पैदा हो सकता है । लेकिन यह बात नही है, वह न द्रव्यस्त्रियो में पैदा होता है और न भावस्त्रियो । सम्यग्दृष्टिको समस्त प्रकारकी स्त्रियोमें पैदा न होनेका ही प्रतिपादन शास्त्रोंमें है। स्वामी समन्तभद्रने 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकनपुसकस्त्रीत्वानि' रत्नकरण्डश्रावकाचारके इस श्लोकमे 'स्त्रीत्व' सामान्य (जाति) पदका प्रयोग किया है, जिसके द्वारा उन्होने यावत स्त्रियो (स्त्रीत्वावच्छिन्न द्रव्य और भावस्त्रियो)में पैदा न होनेका स्पष्ट उल्लेख किया है । पण्डितवर दौलतरामजीने 'प्रथम नरक विन ष ज्योतिष वान भवन सब नारी' इस पद्य में 'सब' शब्द दिया है जो समस्त प्रकारकी स्त्रियोका बोधक है। यह पद्य भी जिस पचसग्रहादिगत प्राचीन गाथाका भावानवाद है उस गाथामें भी 'सव-इत्थीस' पाठ दिया हुआ है। इसके अलावा, स्वामी वीरसेनने षटखण्डागमके सूत्र ८८की टोकामें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको लेकर एक महत्त्वपूर्ण शका और समाधान प्रस्तुत किया है, जो खास ध्यान देने योग्य है और जो निम्नप्रकार है वद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि रकेषु नपुसकवेद इवात्र स्त्रीवेदे किन्नोत्पद्यते इति चेत्, न, तत्र तस्यैवैकस्य सत्त्वात । यत्र क्वचन समुत्पद्यमान सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्टवेदादिषु समुत्पद्यते इति गृह्यताम ।" शका--आयुका जिसने बन्ध कर लिया है ऐसा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जिसप्रकार नारकियोमे नपुसक वेदमें उत्पन्न होता है उसीप्रकार यहां तिर्यचोमें स्त्रीवेदमें क्यो नही उत्पन्न होता? समाधान नही, क्योकि नारकियोमें वही एक नपुसकवेद होता है, अन्य नही, अतएव अगत्या उसीमें पैदा होना पड़ता है। यदि वहाँ नपु सकवेदसे विशिष्ट-ऊँचा (बढकर) कोई दूसरा वेद होता तो उसीमें वह पैदा होता, लेकिन वहां नपु सक वेदको छोडकर अन्य कोई विशिष्ट वेद नही है । अतएव विवश उसीमें उत्पन्न होता है। परन्तु तिर्यञ्चोमें तो स्त्रीवेदसे विशिष्ट--ऊँचा दूसरा वेद पुरुषवेद है, अतएव बद्घायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी तिर्यञ्चोमें ही उत्पन्न होता है। यह आम नियम है कि सम्यग्दृष्टि जहाँ कही (जिस किसी गतिमें) पैदा होता है वहां विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदादिकोमें ही पैदा होता है-उससे जघन्यमें नही। वीरसेन स्वामीके इस महत्वपूर्ण समाधानसे प्रकट है कि मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दष्टिजीव द्रव्य और भाव दोनोंसे विशिष्ट पुरुषवेदमें ही उत्पन्न होगा-भावसे स्त्रीवेद और द्रव्यसे पुरुषवेदमें नही, क्योकि जो द्रव्य और भाव दोनोसे पुरुषवेदी है उसकी अपेक्षा जो भावसे स्त्रीवेदी और द्रव्यसे पुरुषवेदी है वह हीन एव जघन्य है-विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला नही है। द्रव्य और भाव दोनोसे जो पुरुशवेदी है -२४५ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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