SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हो गई कि एक चादर (धागा)का अन्तर रह गया है । इस प्रतिमाके अभिषेक जलसे दाद, खाज, कोढ आदि रोग शान्त होते हैं।" लगभग यही कथा मुनि श्रीशीलविजयजीने अपनी 'तीर्थमाला'में दी है और श्रीपुरके पार्श्वनाथका लोकविश्रुत प्रभाव प्रदर्शित किया है। मुनिजीने विक्रम स० १७३१-३२ में दक्षिणके प्राय समस्त तीर्थोकी वन्दना की थी, उसीका उक्त पुस्तकमें वर्णन निबद्ध है।' यद्यपि उक्त कथाओका ऐतिहासिक आधार तथ्यभूत है अथवा नही, इसका निर्णय करना कठिन है फिर भी इतना अवश्य है कि उक्त कथाएँ एक अनुश्रुति है और काफी पुरानी हैं। कोई आश्चर्य नही कि उक्त प्रतिमाके अभिषेकजलको शरीरमे लगानेसे दाद, खाज और कोढ जैसे रोग अवश्य नष्ट होते होगे और इसी कारण उक्त प्रतिमाका अतिशय लोकमें दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया होगा । विक्रमकी नवमी शताब्दीके प्रखर तार्किक आचार्य निन्द जैसे विद्वानाचार्य भी श्रीपुरके पार्श्वनाथको महिमासे प्रभावित हुए हैं और उनका स्तवन करनेमें प्रवृत्त हुए है। अर्थात् श्रीपुरके पार्श्वनाथको लक्ष्यकर उन्होने भक्तिपूर्ण 'श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र'की रचना की है। गङ्गनरेश श्रीपुरुषके द्वारा श्रीपुरके जैनमन्दिरके लिए दान दिये जानेका उल्लेख करनेवाला ई० सन् ७७६ का एक ताम्रपत्र भी मिला है। इन सब बातोसे श्रीपुरके पार्श्वनाथका ऐतिहासिक महत्त्व और प्रभाव स्पष्टतया जान पडता है। अव विचारणीय यह है कि यह श्रीपर कहां है-उसका अवस्थान किस प्रान्तमे है ? प्रेमीजीका अनुमान है कि धारवाड जिले का जो शिरूर गांव है और जहाँसे शक स० ७८७का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है तथा जो इण्डियन ए भाग १२ पृ० २१६में प्रकाशित हो चुका है, वही प्रस्तुत श्रीपुर है । कुछ पाश्चात्य विद्वान् लेखकोंने वेसिङ्ग जिलेके 'सिरपुर' स्थानको एक प्रसिद्ध जैनतीर्थ बतलाया है और वहां प्राचीन पार्श्वनाथका मन्दिर होनेकी सूचनाएं की है। गङ्गनरेश श्रीपुरुष (ई० ७७६) और आचार्य विद्यानन्द (ई० ७७५-८४०)को इष्ट श्रीपुर ही प्रस्तुत श्रीपुर जान पहता है और जो मैसूर प्रान्तमें कही होना चाहिए, ऐसा भी हमारा अनुमान है।५ विद्वानोको उसकी पूरी खोज करके ठीक स्थितिपर पूरा प्रकाश डालना चाहिये। मदनकीर्तिने इस तीर्थका उल्लेख पद्य ३ में किया है और उसका विशेष अतिशय ख्यापित किया है। हुलगिरि-शङ्खजिन श्रीपुरके पार्श्वनाथकी तरह हुलगिरि के शङ्खजिनका भी अतिशय जनसाहित्यमें प्रदर्शित किया गया है। इस तीर्थक सम्बन्धमें जो परिचय-ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें मदनकीर्तिकी प्रस्तुत शासनचतुस्थिशिका सबसे प्राचीन और प्रथम रचना है। इसके पद्य ४ में लिखा है कि-"प्राचीन समयमें एक धर्मात्मा व्यापारी गौनमें शङ्कोको भरकर कही जा रहा था। रास्ते में उसे हलगिरिपर रात हो गई। वह वही बस गया। सुबह उठकर जब चलने लगा तो उसकी वह शहोकी गौन अचल हो गई-चल नही सकी । जब उससे १ 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २२७ । २ जैनसि० भा०, भा०४ किरण ३, १० १५८ । ३ जैनसाहित्य और इतिहास पृ० २३७ । ४ आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, वीरसेवामन्दिर-सस्करण । ५ डा० दरबारीलाल कोठिया, श्रीपर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र, प्रस्तावना, वीरसेवामन्दिर-सस्करण । -२३३ - न-३०
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy