SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मदनकीर्त्तिने इस शासनचतुस्त्रिशिकाको विक्रम स० १२४९ और वि० स० १२६३ या वि० स० १३१४ के भीतर किसी समय रचा है और इसलिए उनका समय इन सवतोका मध्यकाल होना चाहिये । इस ऊहापोहसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि मदन कीर्तिका वि० स० १२८५ के प० आशाधरजीकृत जिनयज्ञकल्पमें उल्लेख होनेसे वे उनके कुछ पूर्ववर्ती विद्वान् निश्चित्रूपमें हैं, और इसलिये उनका वि० स० १२८५ के आसपासका समय सुनिश्चित है । स्थानादि - विचार समयका विचार करनेके बाद अब मदनकीर्तिके स्थान, गुरुपरम्परा, योग्यता और प्रभावादिपर भी कुछ विचार कर लेना चाहिए । मदनकीर्ति वादीन्द्र विशालकीर्तिके शिष्य थे और वादीन्द्र विशाल कोर्ति प० आशाधरजीसे न्यायशास्त्रका अभ्यास किया था । प० आशावरजीने धारामें रहते हुए ही उन्हें न्यायशास्त्र पढाया था और इसलिये उक्त दोनो विद्वान् ( विशालकीर्ति तथा मदनकीर्ति) भी धारामें ही रहते थे । राजशेखरसूरिने भी उन्हें उज्जयिनीके रहनेवाले वतलाया है । अत मदनकीर्तिका मुख्यत स्थान उज्जयिनी (धारा) है। ये वाद-विद्यामें बडे निपुण थे । चतुर्दिशाओके वादियोको जीतकर उन्होने 'महाप्रामाणिक - चूडामणि' की महनीय पदवी प्राप्त की थी। ये उच्च तथा आशु कवि भी थे । कविता करनेका इन्हें इतना उत्तम अभ्यास था कि एक दिनमें ५०० श्लोक रच डालते थे । विजयपुर के नरेश कुन्तिभोजको इन्होने अपनी काव्यप्रतिभासे आश्चर्यान्वित किया था और इससे वह बडा प्रभावित हुआ था । पण्डित आशाधरजीने इन्हें 'यतिपति' जैसे विशेषणके साथ उल्लेखित किया है । इन सब बातोसे इनकी योग्यता और प्रभावका अच्छा आभ स मिलता है । संभव है राजाकी विदुषी पुत्री और इनका आपसमें अनुराग हो गया हो और ये अपने पदसे च्युत हो गये हो, पर वे पीछे सम्हल गये थे और अपने कृत्यपर घृणा भी करने लगे थे। इस बातका कुछ स्पष्ट आभास उनकी इसी शासनचतुस्त्रिशतिकाके " यत्पापवासाद्वालोय" इत्यादि प्रथम पद्य और " इति हि मदनकोर्तिश्चिन्तयन्नाऽऽत्मचित्ते" इत्यादि ३५ वें पद्यसे होता है और जिसपरसे मालूम होता है कि वे कठोर तपका आचरण करते तथा अकेले विहार करते हुए इन्द्रियो और कषायोकी उद्दाम प्रवृत्तियोको कठोरतासे रोकने में उद्यत रहते थे और जीवमात्र के प्रति बन्धुत्वकी भावना रखते थे । तात्पर्य यह कि मदनकीर्ति अपने अन्तिम और दंगम्बरी वृत्ति तथा भावनासे अपना गये थे उनका स्वर्गवास कब, कहाँ और किस अवस्था में । । पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे मुनि जीवन में प्रायश्चित्तादि लेकर यथावत् मुनिपदमें स्थित समय यापन करते थे, ऐसा उक्त पद्योसे मालूल होता है हुआ, इसको जाननेके लिये कोई साधन प्राप्त नही है अवस्थामें ही स्वर्गवासी हुए होगे, गृहस्थ अवस्थामे नहीं, क्योंकि अपने कृत्यपर पश्चात्ताप करनेके बाद पूर्ववत् मुनि होगये थे और उसी समय यह शासनचतुस्त्रिशिका रची, ऐसा उसके अन्त परोक्षणपरमे प्रकट होता है । राजशेखरसूरिने कुछ घटा-बढाकर उनका चरित्र चित्रण किया जान पडता है । प्रेमीजीने' भी उनके इस चित्र पर अविश्वास प्रकट किया है और मदनकीर्तिसे सौ वर्ष वाद लिखा होनेसे 'घटनाको गहरा रग देने' या 'तोडे मरोढे जाने' तथा 'कुछ तथ्य' होनेका सूचन किया है । जो हो, फिर भी उसके ऐतिहासिक तथ्यका मूल्याकन होना चाहिए । १ जैनसाहित्य और इतिहास प० १३९ । न-२९ - २२५ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy