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प्रमाणपरीक्षाकी अपनी वचनिका - प्रशस्ति में वे प० जयचन्दजोके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए लिखते है कि उनकी वचनिकाओको देखकर मेरी भी ऐसी बुद्धि हुई, जिससे मैं प्रमाण-शास्त्रका उत्कट रसास्वादन कर सका और अन्य दर्शन मुझे नीरस जान पड़े।
२ समय
प० जयचन्दजीका समय सुनिश्चित है। इनकी प्राय सभी कृतियो ( वचनिकाओ) में उनका रचनाकाल दिया हुआ है | जन्म वि० स० १७९५ और मृत्यु वि० स० १८८१-८२ के लगभग मानी जाती है । रचनाओके निर्माणका बारम्भ बि० स० १८५९ से होता है और वि० स० १८७४ तक वह चलता है। प्राप्त रचनाएँ इन सोलह वर्षोंकी ही रची उपलब्ध होती हैं। इससे मालूम होता है कि ग्यारह वर्षकी अवस्यासे लेकर चौसठ वर्षकी अवस्था तक अर्थात् तिरेपन वर्ष उन्होने शास्त्रोके गहरे पठन-पाठन एव मननमें व्यतीत किये थे । और तदुपरान्त ही परिणत वयमें साहित्य-सृजन किया था। अत जयचन्दजीका अस्तित्व समय विक्रम स० १७९५- १८८२ है ।
३ साहित्यिक कार्य
इनकी मौलिक रचनाएँ और वचनिकाएँ दोनो प्रकारकी कृतियां उपलब्ध हैं । पर अपेक्षाकृत वचनिकाएँ अधिक हैं । मौलिक रचनाओंमें उनके संस्कृत और हिन्दीमें रचे गये भजन ही उपलब्ध होते हैं, जो विभिन्न राग-रागिनियो में लिखे गये हैं और 'नयन' उपनामसे प्राप्त हैं । उनकी वे रचनाएँ निम्न प्रकार हैं
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१ तत्त्वार्थसून वचनिका
२ सर्वार्थसिद्धि वचनिका *
३ प्रमेयरत्नमाला वचनिका*
४ स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा-वच निका*
५ द्रव्यसंग्रह - वच निका*
६ समयसार वचनिका*
(आत्मख्याति सस्कृत टीका सहित की)
७ देवागम (आप्तमीमासा ) - वचनिका
८ अष्टपाहुड-वच निका*
९ ज्ञानार्णव वचनिका*
१० भवतामरस्तोत्र - वच निका
१ जयचन्द इति ख्यातो जयपुर्यामभूत्सुघी । दृष्ट्वा यस्याक्षरन्यास मादृशोऽपीदृशी मति ॥ १॥
यया प्रमाणशास्त्रस्य सस्वाद्य रसमुल्वणम् । नैयायिकादिसमया भासन्ते सुष्ठु नीरसा ॥२॥
वि० सं० १८५९ चैत्रशुक्ला ५० १८६१ आषाढ शु० ४ स० १८६३ श्रावण कृ० ३ स० १८६३ श्रावण कृ० १४ स० १८६३ कार्तिक कृ० १० स० १८६४
चैत्र कृ० १४ वि० स० १८६६ भाद्र शु० १२० १८६७
- २१८
माघ कृ० ५ स० १८६९ कार्तिक कृ० १२० १८७०
प्रमाणपरीक्षा वचनिका अन्तिम प्रश० ।
२ वीरवाणी (स्मारिका) वर्ष १७, अक १३ ५० ५० तथा ९५ ।
★ स्वयके हाथसे लिखी चिह्नाकित ग्रन्य-प्रतियां दि० जैन वटा मन्दिर, जयपुर में उपलब्ध है । वीर वाणी (स्मारिका) १०९५ ।