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________________ समुदाय था। उसमें पडित वशीधरजी उनसे पहले हो चुके थे, जो बड़े प्रभावशाली तथा अच्छे विचारवाद थे। पडित टोडरमलजी उनके समयमें थे और जो बड़े तीक्ष्ण-बुद्धि थे। उनकी गोम्मटसार-वचनिकाकी प्रशसा सभी करते थे। उसीका वाचन, पठन-पाठन और मनन चलता था तथा लोग अपनी बुद्धि बढ़ाते थे। ५० दौलतरामजी कासलीवाल बडे गुणी थे और 'पंडितराय' कहे जाते थे। राजपरिवारमें वे आते-जाते थे। उन्होने तीन पुगणोको वचनिकाएं की थी। उनकी सूक्ष्म बुद्धिकी सर्वत्र सस्तुति होती थी। ब्रह्म रायमल्लजी और शीलवती महारामजी भी उस शैलीमें थे। प० जयचन्दजी इन्ही गुणी-जनो तथा विद्वानोकी सगतिमें रहने लगे थे । और अपनी बुद्धि अनुसार जिनवाणी (शास्त्रो) के स्वाध्यायमें प्रवृत्त हो गये थे । उन्होने जिन ग्रन्थोंका मुख्यतया स्वाध्याय किया था, उनका नामोल्लेख उन्होने इसी प्रशस्तिमें स्वय किया है । सिद्धान्तग्रन्थोके स्वाध्यायके अतिरिक्त न्याय-ग्रन्थो तथा अन्य दर्शनोके ग्रन्थोका भी उन्होने अभ्यास किया था। उनकी वचनिकाओमे भी उनको बहुश्रुतता प्रकट होती है। लगता है कि पडित टोडरमलजी जैसे अलौकिक प्रतिभाके धनी विद्वानोके सम्पर्कसे ही उनकी प्रतिमा जागत हई और उन्हें अनेक ग्रन्थोकी वचनिकाएँ लिखनेकी प्रेरणा मिली। उक्त प्रशस्तिके आरम्भमें राज-सम्बन्धका भी वर्णन करते हुए उन्होने लिखा है कि जम्वद्वीपके भरतक्षेत्रके आर्यखण्डके मध्यमे 'ढुढाह' देश है। उसको राजधानी 'जयपुर' नगर है। वहाँका राजा 'जगतेश' (जगतसिंह) है, जो अनुपम है और जिसके राज्य में सर्वत्र सुख-चैन है तथा प्रजामें परस्पर प्रेम है। सब अपने-अपने मतानुसार प्रवृत्ति करते है, आपसमें कोई विरोध-भाव नही है । राजाके कई मंत्री हैं । सभी बुद्धिमान और राजनीतिमें निपुण हैं । तथा सब ही राजाका हित चाहनेवाले एव योग्य प्रशासक हैं। इन्हीम एक रायचन्द है, जो बडे गुणी है और जिनपर राजाको विशेप कृपा है । यहां 'विशेष कृपा' के उल्लेखसे जयचन्दजीका भाव राजाद्वारा उन्हें 'दीवान' पदपर प्रतिष्ठित करनेका जान पड़ता है। इसके आगे इसी प्रशस्तिमें रायचन्दजीके धर्म-प्रेम, साधर्मी-वात्सल्य आदि गुणोकी चर्चा करते हुए उन्होने उनके द्वारा की गई उस चन्द्रप्रमजिनमन्दिरकी प्रसिद्ध प्रतिष्ठा (वि० स० १८६१) का भी उल्लेख किया है, जिनके द्वारा रायचन्दजीके यज्ञ एव पुण्यको वृद्धि हई थी और समस्त जैनसघको बडा हर्ष हुआ था। जम्बूद्वीप भरत सुनिवेश, आरिज मध्य ढु ढाहह देश । पुर जयपुर तहां सूवस वस, नृप जगतेश अनुपम लस ।।१॥ ताके राजमाहि सुखचैन, धरै लोक कहूँ नाही फैन । अपने-अपने मत सब चलें, शका नाहिं धार शुभ फलैं ॥२॥ नपके मन्त्री सब मतिमान्, राजनीतिमे निपुण पुरान । सर्व ही नपके हितको चहैं, ईति-भीति टारै सुख लहैं ॥३॥ तिनमें रायचन्द गुण धरै, तापरि कृपा भूप अति करै । ताके जैन धर्मकी लाग, सब जैननिसू अति अनुराग ।।सर्वार्थसिद्धि वचनिका, अ० प्रशस्ति । २ करी प्रतिष्ठा मदिर नयो, चद्रप्रभ जिन थापन थयौ।। ताफरि पुण्य बढी यश भयो, सर्व जैननिको मन हरखयौ ॥६॥-सर्वार्थसिद्धि-वचनिका, अ० प्रश०६ । -२१६
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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