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________________ दूसरे, जयसेनने अपने ढगसे मामूली परिवर्तन (घटा-वढीरूप सुधार) भी किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसने किसका अनुकरण किया है । उदाहरणके लिए ब्रह्मदेवका 'देशान्तरस्थस्त्री'का दृष्टान्त लीजिए | इसमे जयसेनने 'सीतादि' पद और जोडकर 'देशान्तरस्थसीतादिस्त्री' का दृष्टान्त दिया है। इसी तरह ब्रह्मदेवके 'कोऽपि' पदके साथ 'रामदेवाविपुरुषो' और मिलाकर 'कोऽपि रामदेवादिपुरुषो' ऐसा व्याख्यात्मक पद जयसेनने प्रस्तुत किया है। इस ढगके सुधार और परिवर्तन उत्तरवर्ती ही करता है और इसलिए यह नि सकोच कहा जा सकता है कि जयसेनने ब्रह्मदेवका अनुकरण किया है। तीसरे, पदच्छेद, उत्थानिका, अधिकारी और अन्तराधिकारोकी कल्पना जयसेनने ब्रह्मदेवसे ली है। चौथे, जयसेनने पचास्तिकायमें व्याख्याका ढग वहो अपनाया है, जो ब्रह्मदेवने द्रव्यसग्रह और परमात्मप्रकाशमें अपनाया है। सन्धि न करनेका जो 'सुखबोधार्थ' हेतु ब्रह्मदेवने प्रस्तुत किया है वही जयसेनने दिया है। पांचवें, जयसेनने अपने निमित्त-कथनका समर्थन ब्रह्मदेवनिमित्त-कथनसे किया है और 'अत्र प्राभृतग्रन्थे शिवकुमार महाराजो निमित्तं, अन्यत्र द्रव्यसग्रहावौ सोमश्रष्ठयावि ज्ञातव्यम्' शब्दोको देकर तो उन्होने स्पष्टतया ब्रह्मदेवके अनुकरणको प्रमाणित कर दिया है । इस प्रकार दोनो टीकाकारोकी टीकामोके आभ्यन्तर परीक्षणसे जयसेन निश्चय ही ब्रह्मदेवके उत्तरकालीन विद्वान् ज्ञात होते हैं। जयसेनका समय डा० ए० एन० उपाध्येने ईसाकी वारहवी शताब्दीका उत्तरार्घ निर्धारित किया है। ब्रह्मदेव उक्त आधारोसे उनसे पूर्ववर्ती सिद्ध होनेसे उनका अस्तित्व-समय ईसाकी बारहवी शताब्दीका आरम्भ और विक्रमकी १२ वी शताब्दीका उत्तरार्द्ध (वि० स० ११५० से १२००) ज्ञात होता है। इस तरह ब्रह्मदेव वसुनन्दि (वि० स० ११५०) से उत्तरवर्ती और जयसेन (वि० स० १२१७) तथा प० आशाधर (वि० स० १२९६) से पूर्ववर्ती अर्थात् वि० स० ११५० से वि० स० १२०० के विद्वान् प्रतीत होते हैं। प० परमानन्दजी शास्त्रीने ब्रह्मदेव, द्रव्यसग्रहकार मनि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव और राजा भोजदेव इन तीनोंको समकालीन बतलाया है। परन्तु हम ऊपर देख चुके हैं कि ब्रह्मदेव वसुनन्दि (वि०स० ११५०) से पूर्ववर्ती नही है और नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव वसुनन्दिके साक्षात् गुरु होनेसे उन्हें उनसे २५ वर्ष पूर्व तो होना ही चाहिए अर्थात् नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवका समय वि० स० ११२५ के लगभग है। राजा भोजदेव नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवके गुरु नयनन्दि (वि० स० ११००) द्वारा अपने समयमें उनके राज्यका उल्लेख होनेसे उनके समकालीन है। अत इन तीनोका समय एक प्रतीत नही होता। राजा भोजका वि० स०११०० (वि० १०७४-१११७), नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवका वि० स० ११२५ और ब्रह्मदेवका वि० स० ११७५ अस्तित्व-स मय सिद्ध होता है। कारणेन पुण्यानवपरिणामसहितत्वात्तदुभवे निर्वाण न लभते भवान्तरे पुनर्देवेन्द्रादिपद लभते । तत्र विमानपरीवारादिविभूति तृणवद्गणयन् सन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा समवसरणे वीतरागसर्वज्ञान् पश्यति । निर्दोषपरमात्माराधकगणधरदेवादीना च तदनन्तर विशेषेण दृढधर्मो भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मभावनामपरित्यजन सन् देवलोके काल गमयति । ततोऽपि जीवितान्ते स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रवर्त्यादिविभूति लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोह न करोति, ततश्च विषयसुख परिहृत्य जिन दीक्षा गृहीत्वा निजशुन्द्वात्मनि स्थित्वा मोक्ष गच्छतीति ।'-पचास्तिकायतातपर्य वृ०, पृ० २४३-४४ । १ 'द्रव्यसग्रहके कर्ता और टीकाकारके समयपर विचार' शीर्षक लेख, अनेकान्त (छोटेलाल जैन स्मृति 'अक) पृ० १४५। -२१४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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