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________________ यहाँ ध्यातव्य है कि लघुद्रव्यसंग्रहमें उसका नाम 'द्रव्यसंग्रह' नही दिया, किन्तु 'पयत्य- लक्खणक्रराओ गाहाओ' पदोके द्वारा उसे 'पदार्थलक्षणकारिणी गाथाएँ' कहा है, जब कि बृहद्रव्यसग्रह में 'बव्वसगहमिणं' पदके द्वारा उसका नाम स्पष्टरूपसे 'ब्रव्य संग्रह' दिया है और इससे मालूम होता है कि 'द्रव्यसंग्रह ' नामकी कल्पना प्रथकारको अपनी पूर्व रचनाके बाद इस द्रव्यसंग्रहको रचते समय उत्पन्न हुई है और इसके रचे जाने तथा उसे 'द्रव्यसग्रह' नाम दे देनेके उपरान्त 'पदार्थलक्षणकारिणी गाथाओं को भी ग्रन्यकार अथवा दूसरो के द्वारा 'लघुद्रव्यसग्रह' नाम दिया गया है और तब यह ५८ गाथाभोवाली कृति - - ' द्रव्यसग्रह' बृहद्विशेषण के साथ सुतरा 'बृहद्रव्य संग्रह' के नामसे व्यवहुत एव प्रसिद्ध हुई जान पडती है । अतएव 'लघुद्रव्यग्रह' के अन्त में पाये जानेवाले पुष्पिकावाक्यमें उसके 'लघुद्रव्यसग्रह' नामका उल्लेख मिलता है' । यहाँ एक प्रश्न यह उठ सकता है कि उपलब्ध 'लघुद्रव्यसंग्रह' में २५ ही गाथाएँ पायी जाती हैं, जबकि संस्कृत टीकाकार उसे २६ गाथाप्रमाण बतलाते हैं । अत वास्तविकता क्या है ? इस सम्बन्धमे श्रद्धेय प० जुगल किशोरजी मुख्तारने ऊहापोहके साथ सम्भावना की है कि 'हो सकता है, एक गाथा इस ग्रन्थ- प्रतिमें छूट गई हो, और सम्भवत १० वी - ११ वी गाथाओके मध्यकी वह गाथा जान पडती है जो 'बृहद्रव्य संग्रह ' में 'माघमा कालो' इत्यादि रूपसे न० २० पर दी गई है और जिसमें लोकाकाश तथा अलोकाकाशका स्वरूप वर्णित है।' इसमें युक्तिके रूपमें उन्होने कुछ आवश्यक गाथाओका दोनोमें पाया जाना बतलाया है । निसन्देह मुख्तार साहबकी सम्भावना और युक्ति दोनो बुद्धिको लगते हैं । यथार्थमें 'लघुद्रव्यसग्रह' में जहाँ धर्म, अधर्म, आकाश आदिको लक्षणपरक गाथाएँ दी हुई हैं वहाँ लोकाकाश तथा अलोकाकाशके स्वरूपकी प्रतिपादिका कोई गाथा न होना खटकता है । स्मरण रहे कि बृहद्रव्यसग्रहमें १७, १८, १९, २१ और २२ न० पर लगातार पायी जाने वाली ये पाँचो गाथाएँ तो लघुद्रव्यसंग्रहमें ८, ९, १०, ११ और १२ न० पर स्थित हैं, पर बृहद्रव्यस ग्रहकी १९ और २१ वी गाथाओके मध्यकी २० न० वाली गाथा लघुद्रव्यसग्रहमें नही है, जिसका भी वहाँ होना आवश्यक था । अत बृहद्रव्य सग्रहमें २० न० पर पायी जाने वाली उक्त गाथा लघुद्रव्य संग्रहकी उपलब्ध ग्रन्थ-प्रतिमें छूटी हुई मानना चाहिए । सम्भव है किसी अन्य ग्रन्थ- प्रतिमें वह मिल जाय । उपलब्ध २५ गाथा - प्रमाण यह 'लघुद्रव्यसग्रह' अपने सक्षिप्त अर्थके साथ इसी वृहद्रव्यसग्रह में मुद्रित है। (ग) अध्यात्मशास्त्र ' वस्तु के —— मुख्यतया जीवके - शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपोका निश्चय और व्यवहार अथवा शुद्ध और अशुद्ध नयोंसे कथन करनेवाला अध्यात्मशास्त्र है । जो नय शुद्धताका प्रकाशक है वह निश्चय नय अथवा शुद्ध नय है । और जो अशुद्धताका द्योतक है वह व्यवहारनय अथवा अशुद्धमय है । द्रव्यसग्रहमें इन दोनो नयोसे जीवके शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपोका वर्णन किया गया है । ग्रन्थकर्त्ताने स्पष्टतया न०३, ६, ७, ८, ९, १०, १३, ३० और ४५ वी गाथाओ में 'णिच्च्य दो', 'ववहारा', 'शुद्धणया' 'मशुद्धणया' जैसे पद-प्रयोगो द्वारा - अन्तिम पुष्पिकावाक्य, लघुद्रव्यस० । १ इति श्रीनेमिचन्द्रस्त्रिकृत लघुद्रव्यसग्रहमिद पूर्णम् । २. अनेकान्त वर्ष १२, किरण ५, पृ० १४९ । ३ शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय । अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनय. । उभावप्येतौ स्त, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात् । किन्त्वत्र निश्चयनय साधकतमत्वादुपात्त । साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्वद्योतकत्वान्निश्चयनय एक साधकतमो न पुनरशुद्धत्वद्योतको व्यवहारनय । —अमृतचन्द्र, प्रवच० ज्ञेया गा९ ९७ । न-२६ - २०१ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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