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________________ १ पहला अधिकार 'षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय-प्रतिपादक' नामका है। इसमें तीन अन्तराधिकार है और सत्ताईस गाथाएँ है । प्रथम अन्तराधिकारमे चउदह गाथाओद्वारा जीवद्रव्यका, द्वितीय अन्तराधिकारमे आठ गाथाओद्वारा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पांच अजीवद्रव्योका और तीसरे अन्तराधिकारमें पांच गाथाओद्वारा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँच अस्तिकायोका कथन है । प्रथम अन्तराधिकारकी चउदह गाथाओमें भी पहली गाथाद्वारा मङ्गलाचरण तथा श्रीऋषभजिनेन्द्र-प्रतिपादित जीव और अजीव इन मुल दो द्रव्योका नाम-निर्देश किया गया है। दूसरी गाथाद्वारा जीवद्रव्यके जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमूत्तित्व, कर्तुत्व, स्वदेहपरिमितत्व, भोक्तृत्व, ससारित्व, सिद्धत्व और विस्रसा ऊर्ध्वगमन ये नो अधिकार (वर्णन-प्रकार) गिनाये गये हैं। तीसरी गाथासे लेकर चउदहवी गाथा तक बारह गाथाओद्वारा उक्त अधिकारोंके माध्यमसे जीवका स्वरूप वर्णित किया है। २ दूसरा अधिकार 'सप्ततत्त्व-नवपदार्थप्रतिपादक' नामका है। इसमे दो अन्तराधिकार है तथा ग्यारह गाथाएँ हैं। प्रथम अन्तराधिकारमें अट्ठाईसवी गाथासे लेकर सैंतीसवी गाथा तक दस गाथाओ द्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोका और दूसरे अन्तराधिकारमें अडतीसवी गाथाद्वारा उक्त सात तत्त्वोमें पुण्य तथा पापको मिलाकर हुए नौ पदार्थोंका स्वरूप-कथन है । ३ तीसरा अधिकार मोक्षमार्ग-प्रतिपादक' नामका है। इसमें भी दो अन्तराधिकार हैं और बीस गाथाएं हैं। प्रथम अन्तराधिकारमें उनतालीसवी गाथासे लेकर छियालीसवी गाथा तक आठ गाथामोद्वारा व्यवहार और निश्चय दो प्रकारके मोक्षमार्गोका प्रतिपादन है। यत ये दोनो मोक्षमार्ग ध्यानद्वारा ही योगीको प्राप्त होते हैं, अत इसी अधिकारके अन्तर्गत दूसरे अन्तराधिकारमें सैतालीसवी गाथासे लेकर सत्तावनवी गाथा तक ग्यारह गाथाओद्वारा ध्यान और ध्येय (ध्यानके आलम्बन) पांच परमेष्ठियोका भी सक्षेपमें प्ररूपण है । अन्तिम अण्ठावनवी गाथाद्वारा, जो स्वागताछन्दमें है, अन्यकर्त्ताने अपनी लघुता एव निरहकारवृत्ति प्रकट की है। इस तरह मुनि श्री नेमिचन्द्रने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें बहुत ही थोडे शब्दो-केवल अण्ठावन (५८) गाथाओद्वारा विपुल अर्थ भरा है। जान पडता है कि इसीसे यह इतना प्रामाणिक और लोकप्रिय हुआ है कि उत्तरवर्ती लेखकोने उसे सबहुमान अपनाया है। इसके सस्कृत-टीकाकार श्रीब्रह्मदेवने इसकी गाथामोको 'सूत्र' और इसके कर्ताको 'भगवान्' कहकर उल्लेखित किया है । पण्डितप्रवर आशाघरजीने अनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टोकामे इसकी गाथायोको उद्धृत करके उनसे अपने वर्ण्यविषयको प्रमाणित एव पुष्ट किया है। भाषा-वचनिकाकार ५० जयचन्दजीने भी ग्रन्थके महत्त्वको अनुभव करके उसपर सक्षिप्त, किन्तु विशद वचनिका लिखी है। प० जयचन्दजी वचनिका लिखकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, उसपर द्रब्यसग्रह-भाषा अर्थात् हिन्दी-पद्यानुवाद भी उन्होने लिखा है, जो गाथाके पूरे अर्थको एक-एक चौपाई द्वारा बडे अच्छे ____ भगवान् सूत्रमिद प्रतिपादयति'-सस्कृत-टीका पृष्ठ ४, 'अत्र सूत्रे'-वही पृ० २१, 'सूत्र गतम्'वही १० २३, 'तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवता श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवानामिति'-वही प० ५८. 'अत्राह सोमाभिधानो राजश्रेष्ठी । भगवन् ? '-वही पृ० ५८, 'भगवानाह'-वही पृ० ५९, 'अत्राह सोमनामराजश्रेष्ठी। भगवन् । '--वही पु०१४९, 'भगवानाह'-वही पृ० १४९, 'भगवान् सूत्रमिद प्रतिपादयति'-वही पु० २०९, २२३, 'भगवन्'-वही पृ० २२९, २३१।। देखिए, अनगारधर्मामृतटीका पृष्ठ ४, १०९, ११२, ११६, २०४ आदि । पृ० ११८ पर तो 'तथा चोक्त द्रव्यसग्रहेपि' कहकर उसकी 'सव्वस्स कम्मणों' आदि गाथा उद्धृत की गई है। - १९९ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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