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३ ज-यह जयपुरके महावीर-भवन स्थित आमेर-शास्त्रमण्डारकी प्रति है। इसमें कुल पत्र ५२ है, अर्थात् १०४ पृष्ठ है । प्रथम पत्रका प्रथम पृष्ठ खाली है और उसके दूसरे पृष्ठसे लिखावट आरम्भ है । इसी प्रकार पत्र ५२ के पहले पृष्ठमें सिर्फ चार पक्तियां हैं। इस पृष्ठका शेष भाग और दूसरा पृष्ठ रिक्त है। इस तरह ५०१ पत्रो अर्थात् १००३ पृष्ठोमें लिखावट है। प्रत्येक पृष्ठकी लम्बाई मय दोनो ओरके हासियोके १०१, १०३ इच और चौडाई मय ऊपर-नीचेके हासियोंसहित ४३, ४४ इच है । लम्बाईमें १३, ११ इचके दोनो ओर हासिये हैं तथा चौडाईमें भी ऊपर-नीचे 3, ३ इच हांसियोकी खाली जगह है । इस प्रकार ८ इच लम्बाई और ३४ इच चौडाईमें लिखाई है। प्रत्येक पृष्ठमें १० पक्तियां और प्रत्येक पक्तिमें प्राय ३२ अथवा कम-बढ अक्षर पाये जाते हैं। प्रति पुष्ट, शुद्ध और सुवाच्य है। व्यावर-प्रति और इस प्रतिके पाठ प्राय सर्वत्र समान हैं । इसका अन्तिम पुष्पिका-वाक्य ठीक उसी प्रकार है जैसा व्यावर-प्रतिमें है और जो पुस्तक (पृ० ७४) के अन्तमे मुद्रित है । हां, द्रव्यसग्रह-भाषाफा अन्तिम पुष्पिका-वाक्य भिन्न है और जो निम्न प्रकार है -
इति द्रव्यसग्रहभाषा सपूर्ण ।। लिपीकृत माणिकचन्द लेखक लिखापित सुखराम सिंभराम पापडीवाल रूपाहेडीका शुभ भूयात् ।'
इस पुष्पिका-वाक्यसे दो बातें ज्ञात होती हैं । एक यह कि इस प्रतिके लेखक माणिकचन्द हैं और यह सखराम सिभराम पापडीवाल द्वारा लिखाई गई है। दूसरी बात यह ध्वनित होती है कि सुखराम सिंभराम पापडीवाल रूपाहेडोके रहने वाले थे और सम्भवत यह प्रति रूपाहेडीमें ही लिखी गयी है। मालम पढता है कि यह रूपाहेही उस समय एक अच्छा सम्पन्न कस्बा होगा, जहाँ जैनियोंके अनेक घर होगे और उनमे धार्मिक जागति अच्छी होगी । यह 'रूपाहेडी' जयपुरके दक्षिणकी ओर करीब २० मीलपर एक कोटेसे गाँवके रूपमें आज भी विद्यमान है और वहाँ ४, ५ जैन घर होगे,' ऐसा डा० कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल के उस पत्रसे ज्ञात हा जो उन्होने २९ जलाई ६६ को लिखा ।
इस प्रतिके प्रथम पत्रके द्वितीय पृष्ठके मध्यमें एक छह पाखुडीका सुन्दर कमलका आकार लाल स्याहीसे बना हआ है, अन्य पत्रोमें नहीं है। इस प्रतिकी जयपुर-सूचक 'ज' सज्ञा रखी है। . ग्रन्थ-परिचय
प्रस्तुत मूल ग्रन्थ 'द्रव्यसंग्रह' है और उसके कर्ता श्री नेमिचन्द्र मुनि है। इसमें उन्होने जैनदर्शनमें १ दन्वसगहमिण
णेमिचदमुणिणा भणिय ज ॥
-नेमिचन्द्रमुनि, द्रव्यसग्रह गा० ५८ । २ भारतीय दर्शनोमें वैशेषिक और मीमासक दोनों दर्शन पदार्थ तथा द्रव्य दोनोको मानते हैं । पर उनके
अभिमत पदार्थ और द्रव्य तथा उनकी सख्या जैन दर्शनके पदार्थों और द्रव्योसे बिलकूल भिन्न है। इसी प्रकार न्यायदर्शनमें स्वीकृत केवल पदार्थ और साख्यदर्शनमें मान्य केवल तत्त्व और उनकी संख्या भी जैन दर्शनके पदार्थों तथा तत्त्वोसे सर्वथा अलग है । बौद्धदर्शनके चार आर्यसत्य-दुख, समुदय, मार्ग और निरोध यद्यपि जैनदर्शनके आस्रव, बन्ध, सवर-निर्जरा और मोक्ष तत्त्वोका स्मरण दिलाते है, पर वे भी भिन्न ही है और सख्या भी भिन्न है । वेदान्तदर्शनमें केवल एक आत्मतत्त्व ही ज्ञातव्य
और उपादेय है तथा वह एकमात्र अद्वैत है। चार्वाकदर्शनमें पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये चार भततत्त्व है और जिनके समुदायसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती हैं। चार्वाकदर्शनके ये चार भूततत्त्व भी जैन दर्शनके सात तत्त्वोसे भिन्न है। इन दर्शनोके पदार्थों, द्रव्यों और तत्त्वोका उल्लेख अगले पादटिप्पणमें किया गया है, जो अवश्य जानने योग्य हैं।
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