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________________ जन-नही, क्योकि वेद पद-वाक्यादिरूप होनेसे पौरुषेय है, जैसे भारत आदि शास्त्र । मीमासक-वेदमें जो वर्ण हैं वे नित्य हैं, अत उनके समूहरूप पद और पदोके समूहरूप वाक्य नित्य होनेसे उनका समूहरूप वेद भी नित्य है-वह पौरुषेय नही है ? जैन-नही, क्योकि वर्ण भिन्न-भिन्न देशो और कालोमें भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं, इसलिये वे अनित्य हैं। दूसरे, ओठ, तालु, आदिके प्रयत्नपूर्वक वे होते हैं और जो प्रयत्नपूर्वक होता है वह अनित्य माना गया है । जैसे घटादिक । मोमासक-प्रदीपादिकी तरह वर्णों की ओठ, ताल आदिके द्वारा अभिव्यक्ति होती है-उत्पत्ति नही । दूसरे, 'यह वही गकारादि हैं' ऐसी प्रसिद्ध प्रत्यभिज्ञा होनेसे वर्ण नित्य हैं ? जैन-नही, ओठ, ताल आदि वर्णोके व्यजक नही है वे उनके कारक हैं । जैसे दण्डादिक घटादिके कारक हैं। अन्यथा घटादि भी नित्य हो जायेंगे। क्योकि हम भी कह सकते हैं कि दण्डादिक घटादि के है कारक नही। दूसरे, वही मैं है' इस प्रत्यभिज्ञासे एक आत्माकी भी सिद्धिका प्रसग आवेगा । यदि इसे भ्रान्त कहा जाय तो उक्त प्रत्यभिज्ञा भी भ्रान्त क्यों नही कही जा सकती है। मीमासक-आप वर्णोको पुद्गलका परिणाम मानते हैं किन्तु जड पुद्गलपरमाणुओका सम्बन्ध स्वय नही हो सकता। इसके सिवाय, वे एक श्रोताके काममें प्रविष्ट हो जानेपर उसी समय अन्यके द्वारा सुने नही जा सकेंगे? जैन-यह बात तो वर्णोको व्यजक ध्वनियोमें भी लागू हो सकती है । क्योकि वे न तो वर्णरूप है और न स्वय अपनी व्यजक हैं। दूसरे, स्वाभाविक योग्यतारूप सकेतसे शब्दोंको हमारे यहाँ अर्थप्रतिपत्ति कराने वाला स्वीकार किया गया है और लोकमें सब जगह भाषावर्गणाएँ मानी गई है जो शब्द रूप बनकर सभी श्रोताओ द्वारा सुनी जाती हैं । मीमासक-'वेदका अध्ययन वेदके अध्ययनपूर्वक होता है. क्योंकि वह वेदका अध्ययन है, जैसे आजकलका वेदाध्ययन।' इस अनुमानसे वेद अपौरुषेय सिद्ध होता है ? जैन-नही, क्योकि उक्त हेतु अप्रयोजक है-हम भी कह सकते हैं कि "पिटकका अध्ययन पिटकके अध्ययनपूर्वक होता है, क्योकि वह पिटकका अध्ययन है, जैसे आजकलका पिटकाध्ययन ।' इस अनुमानसे पिटक भी अपौरुषेय सिद्ध होता है। मीमासक-बात यह है कि पिटकमें तो बौद्ध कर्ताका स्मरण करते हैं और इसलिये वह अपौरुषेय सिद्ध नही हो सकता। किन्तु वेदमे कर्ताका स्मरण नही किया जाता, अत वह अपौरुषेय सिद्ध होता है ? जैन-यह कथन भी ठीक नही है, क्योकि यदि बौद्धोंके पिटक सम्बन्धी कत्तु स्मरणको आप प्रमाण मानते है तो वे वेदमें भी अष्टकादिकको कर्ता स्मरण करते हैं अर्थात् वेदको भी वे सकर्तृक बतलाते हैं, अत उसे भी प्रमाण स्वीकार करिये। अन्यथा दोनोंको अप्रमाण कहिए । अत कर्ताके अस्मरणसे भी वेद अपौरुषेय सिद्ध नहीं होता और उस हालतमें वह पौरुषेय ही सिद्ध होता है । ११ परत प्रामाण्यसिद्धि मीमासक-वेद स्वत प्रमाण है, क्योंकि सभी प्रमाणोकी प्रमाणता हमारे यहां स्वत ही मानी गई है, मत' वह पौरुषेय नही है? - १८२
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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