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________________ ५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि वस्तु को सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योकि उस हालतमें आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो नही बन सकते है । कर्तृत्व माननेपर भोक्तृत्व और भोक्तृत्व माननेपर कर्तृत्वके अभावका प्रसग आता है, क्योकि ये दोनो धर्म आत्मामें एक साथ नहीं होते-कमसे होते हैं और क्रमसे उन्हें स्वीकार करनेपर वस्तु नित्य नही रहती । कारण, कर्तृत्वको छोडकर भोक्तृत्व और भोक्तृत्वको त्यागकर कर्तृत्व होता है और ये दोनो ही आत्मासे अभिन्न होते हैं। यदि उन्हें भिन्न मानें तो 'वे आत्माके है अन्यके नहीं' यह व्यवहार उत्पन्न नही हो सकता। यदि कहा जाय कि उनका आत्माके साथ समवाय सम्बन्ध है और इसलिये 'वे आत्माके है, अन्यके नही' यह व्यपदेश हो जाता है तो यह कहना योग्य नहीं है, क्योकि उक्त समवाय प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नही होता । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होता तो उसमें विवाद ही नही होता, किंतु विवाद देखा जाता है। योग--आगमसे समवाय सिद्ध है, अत' उक्त दोप नही है ? जैन--नही, जिस आगममे वह सिद्ध है उसकी प्रमाणता अनिश्चित है । अत उससे समवायकी सिद्धि बतलाना असगत है। योग-समवायकी सिद्धि निम्न अनुमानसे होती है -'इन शाखाओमें यह वृक्ष है' यह बुद्धि सम्बन्धपूर्वक है, क्योकि वह 'इहेद' बुद्धि है । जैसे 'इस कुण्डमें यह दही है' यह बुद्धि । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'इस कुण्डमें यह दहो है' यह ज्ञान सयोगसम्बन्धके निमित्तसे होता है इसी प्रकार 'इन शाखाओंमें यह वक्ष है', यह ज्ञान भो समवायसम्बन्धपूर्वक होता है । अत समवाय अनुमानसे सिद्ध है? जैन--नही, उक्त हेतु 'इस वन में यह आम्रादि हैं' इस ज्ञान के साथ व्यभिचारी है क्योकि यह ज्ञान 'इहेद' रूप तो है किन्तु किसी अन्य सम्बन्ध-पूर्वक नहीं होता और न यौगोंने उनमें समवाय या अन्य सम्बन्ध स्वीकार किया भो है । केवल उसे उन्होने अन्तरालाभाषपूर्वक प्रतिपादन किया है और यह प्रकट है कि अन्तरालाभाव सम्बन्ध नहीं है । अत इस अन्तरालाभावपूर्वक होनेवाले 'इहेद' रूप ज्ञानके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी होनेसे उसके द्वारा समवायको सिद्धि नही हो सकती है। ऐसी हालतमें बुद्धघादि एव कर्तृत्वादिसे आत्मा भिन्न ही रहेगा और तब जड आत्मा धर्मकर्ता अथवा फल-भोक्ता कैसे बन सकता है ? अत क्षणिकैकान्तकी तरह नित्य कान्तका मानना भी निष्फल है। अपि च, आप यह बतलाइये कि समवाय क्या काम करता है ? आत्मा और बुद्धधादिमें अभेद करता है अथवा उनके भेदको मिटाता है ? अन्य विकल्प सम्भव नही है ? प्रथम पक्षमें वुद्धघादकी तरह आत्म अनित्य हो जायगा अथवा आत्माको तरह बुद्धघादि नित्य हो जायेंगे, क्योकि दोनो अभिन्न है । दूसरे पक्षम आत्मा और बुद्धयादिके भेद मिटनेपर घट-पटा दिकी तरह ये दोनो स्वतत्र हो जायेंगे । अत समवायसे पहले इनमें न तो भेद ही माना जा सकता है और न अभेद ही, क्योंकि उक्त दूपण आते हैं। तथा भेदाभेद उनमें आपने स्वीकार नही किया तब समवायको मानने से क्या फल है ? योग-भेदको हमने अन्योन्याभावरूप माना है अत आत्मा और बुद्धधादिमें स्वतत्रपनेका प्रसग नही आता? जैन-यह कहना भी आपका ठीक नही है, क्वोकि अन्योन्याभावमें भी घट-पटादिकी तरह स्वतन्त्रता रहेगी-वह मिट नही सकती। यदि वह मिट भी जाय तो अभेद होनेसे उक्त नित्यता-अनित्यताका दोष तदवस्थित है। -१७८
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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