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स्याद्वादसिद्धि और वादीभसिंह
स्वाद्वादसिद्धि
(क) ग्रन्थ-परिचय
___ इस ग्रन्थरत्नका नाम 'स्याद्वादसिद्धि' है । यह दार्शनिकशिरोमणि वादीभसिंहसूरिद्वारा रची गई महत्त्वपूर्ण एव उच्चकोटिको दार्शनिक कृति है। इसमें जैनदर्शनके मौलिक और महान सिद्धान्त 'स्याद्वाद' का प्रतिपादन करते हुए उसका विभिन्न प्रमाणो तथा युक्तियोसे साधन किया गया है। अतएव इसका 'स्याद्वादसिद्धि' यह नाम भी सार्थक है। यह प्रख्यात जैन तार्किक अकलकदेवके न्यायविनिश्चिय आदि जैसा ही कारिकात्मक प्रकरणग्रन्थ है। किन्तु दु ख है कि यह विद्यानन्दकी 'सत्यशासनपरीक्षा' ओर हेमचन्द्रकी 'प्रमाणमीमासा' की तरह खण्डित एव अपूर्ण ही उपलब्ध होती है। मालूम नहीं, यह अपने पूरे रूपमें और किसी शास्त्रभण्डारमें पायी जाती है या नही, । अथवा ग्रन्थकारके अन्तिम जीवनकी यह रचना है जिसे वे स्वर्गवास हो जानेके कारण पूरा नही कर सके ? मूडबिद्रीके जैनमठसे जो इसकी एक अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण और प्राचीन ताडपत्रीय प्रति प्राप्त हुई है तथा जो बहुत ही खण्डित दशामें विद्यमान है-जिसके अनेक पत्र मध्यमें और किनारोंपर टूटे हुए हैं और सात पत्र तो बीचमें बिल्कुल ही गायब है उससे जान पडता है कि ग्रन्थकारने इसे सम्भवत पूरे रूपमें ही रचा है। यदि यह अभी नष्ट नहीं हुई है तो असम्भव नही कि इसको अनुसन्धान होनेपर यह किसी दूसरे जैन या जैनेतर शास्त्रभण्डारमें मिल जाय ।
यह प्रसन्नताकी बात है कि जितनी रचना उपलब्ध है उसमें १३ प्रकरण तो पूरे और १४ वा तथा अगले २ प्रकरण अपूर्ण और इस तरह पूर्ण-अपूर्ण १६ प्रकरण मिलते है । और इन सब प्रकरणोमें (२४ + +४४+ ७४+ ८९३+३२ + २२ + २२+२१ + २३ + ३९+ २८+ १६ + २१ +७० + १३८+६३ =)६७० जितनी कारिकाएँ सन्निबद्ध हैं। इससे ज्ञात हो सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ कितना महान् और विशाल है । दुर्भाग्यसे अब तक यह विद्वत्ससारके समक्ष शायद नही आया और इमलिए अभी तक अपरिचित तथा अप्रकाशित दशामें पडा चला आया। (ख) भाषा और रचनाशली
दार्शनिक होनेपर भी इसकी भाषा विशद और बहुत कुछ सरल है । ग्रन्थको सहजभावसे पढ़ते जाइये, विषय समझमें आता जायेगा। हां, कुछ ऐसे भी स्थल है जहां पाठकको अपना पूरा उपयोग लगाना पडता है और जिससे ग्रन्थकी प्रौढता. विशिष्टता एव अपूर्वताका भी कुछ अनुभव हो जाता है। यह ग्रन्थकारकी मोलिक स्वतन्त्र पद्यात्मक रचना है-किसी दूसरे गद्य या पद्यरूप मूलकी व्याख्या नही है। इस प्रकारकी रचनाको रचनेकी प्रेरणा उन्हें अकलकदेवके न्यायविनिश्चयादि और शान्तरक्षितादिके तत्त्वसग्रहादिसे मिली जान पड़ती है।
धर्मकीति (६२५ ई०) ने सन्तानातरसिद्धि, कल्याणरक्षित (७०० ई०) ने बाह्यार्थसिद्धि, धर्मोत्तर (६० ७२५) ने परलोकसिद्धि और क्षणभङ्गसिद्धि तथा शङ्करानन्द (ई०८००) ने अपोहसिद्धि और प्रतिबन्धसिद्धि जैसे नामोवाले ग्रन्थ बनाये हैं और इनसे भी पहले स्वामी समन्तभद्र (विक्रमकी २ री, ३ री शती)
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