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________________ जैन विचारक ती आरम्भसे ही अनुमानको मानते आये हैं। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या 'अभिनियोष' राज्ञामे उन्होंने उसका व्यवहार किया हो। तस्वमान स्वतरवसिद्धि परपक्षवूपणोद्भावनके लिए उसे स्वीकार करके उन्होने उसका पर्याप्त विवेचन किया है। उनके चिन्तनमें जो विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं उनमें कुछका उल्लेख यहाँ किया जाता है। - अनुमानका परोक्षप्रमाणमे अन्तर्भाव 1 अनुमानप्रमाणवादी सभी भारतीय तार्किकोने अनुमानको स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किया है। पर जैन ताकिकोंने उसे स्वतन्त्र प्रमाण नही माना । प्रमाणके उन्होंने मूलत दो भेद माने हूँ (१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष हम पीछे इन दोनोको परिभाषाएँ अह्नित कर आये हैं। उनके अनुसार अनुमान परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत है, क्योंकि यह अविशद ज्ञान है और उसके द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थकी प्रतिपत्ति होती है। परोक्ष प्रमाणका क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थके परिच्छेदक अविशद ज्ञानोका इसी में समावेश है । तथा वैशद्य एव अवैद्य आधारपर स्वीकृत प्रत्यक्ष और परोक्षके अतिरिक्त अन्य प्रमाण मान्य नही हैं । अर्थापत्ति अनुमानसे पृथक् नही प्राभाकर और भाट्ट मीमासक अनुमानसे पृथक् अर्थापत्ति नामका स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि जहाँ अमुक अर्थ अमुक अर्थके विना न होता हुआ उसका परिकल्पक होता है वहाँ अर्थापत्ति प्रमाण माना जाता है । —जैसे पीनोऽय देवदत्तो दिवा न भुक्ते' इस वाक्यमें, उक्त 'पोनत्व' अर्थ 'भोजन' के विना न होता हुआ 'रात्रिभोजन' की कल्पना करता है, क्योकि दिवा भोजनका निषेध वाक्यमें स्वयं घोषित है। इस प्रकारके अर्थका बोध अनुमानसे न होकर अर्थापत्तिसे होता है। किन्तु जैन विचारक उसे अनुमानसे भिन्न स्वीकार नही करते। उनका कहना है कि अनुमान अन्यथानुपन्न ( अविनाभावी) हेतुसे उत्पन्न होता है और अर्थापत्ति अन्यथानुपपद्यमान अर्थसे । अन्यथानुपपन्न हेतु और अन्ययानुपपद्यमान अर्थ दोनों एक है - उनमे कोई अन्तर नही है । अर्थात् दोनो ही व्याप्तिविशिष्ट होनेसे अभिन्न है । डा० देवराज भी यही वात प्रकट करते हुए कहते हैं कि 'एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तुका आक्षेप तभी हो सकता है जब दोनोंमें व्याप्यव्यापकभाव या व्याससम्बन्ध हो " देवदत्त मोटा है और दिनमें खाता नहीं है, यहाँ अर्थापत्ति । द्वारा रात्रिभोजन की कल्पना की जाती है । पर वास्तवमें मोटापन भोजनका अविनाभावी होने तथा दिनमें भोजनका निषेध करनेसे वह देवदत्त के रात्रिभोजनका अनुमापक है । वह अनुमान इस प्रकार है- 'देववत्त रात्रौ भुक्ते, दिवाभोजत्वे सति पीनत्वान्यथानुपपत्ते ।' यहाँ अन्यथानुपत्तिसे अन्तर्व्याप्ति विवक्षित है, बहिर्व्याप्ति या सकलव्याप्ति नहीं, क्योकि ये दोनों व्याप्तियाँ अव्यभिचरित नहीं हैं। अत अर्थापत्ति और अनुमान दोनो व्याप्तिपूर्वक होनेसे एक ही है- पृथक्-पृथक् प्रमाण नही । अनुमानका विशिष्ट स्वरूप न्यायसूत्रकार अक्षपादकी 'तत्पूर्वकमनुमानम् प्रशस्तपादकी 'लिङ्गदर्शनात्सनायमान लेङ्गिकम्' और उद्योतकरकी लिंग परामर्शोऽनुमानम्' परिभाषाओमे केवल कारणका निर्देश है, अनुमानके स्वरूपका नही । उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लेङ्गिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' में भी लिंगरूप कारणका उल्लेख है, स्वरूप १ पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पु० ७१ । - १५६ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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