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अपेक्षासे तो दृष्टान्तादि अन्य अवयवोका भी प्रयोग स्वीकृत है।' देवसूरि', हेमचन्द्र और यशोविजयने भद्रबाहुकथित पक्षादि पांच शुद्धियोके भी वाक्यमें समावेशका कथन किया और भद्रबाहुके दशावयवोका समर्थन किया है। अनुमान-दोष ।
अनुमान-निरूपणके सन्दर्भमें भारतीय ताकिकोंने अनुमानके सम्भव दोषोपर भी विचार किया है। यह विचार इसलिए आवश्यक रहा है कि उससे यह जानना शक्य है कि प्रयुक्त अनुमान सदोष है या निर्दोष? क्योकि जब तक किसी ज्ञानके प्रामाण्य या अप्रामाण्यका निश्चय नही होता तब तक वह ज्ञान अभिप्रेत अर्थकी सिद्धि या असिद्धि नही कर सकता। इसीसे यह कहा गया है कि प्रमाणसे अर्थस सिद्धि होती है और प्रमाणाभाससे नही । और यह प्रकट है कि प्रामाण्यका कारण गुण हैं और अप्रामाण्यका कारण दोष । अतएव अनुमानप्रामाण्यके हेतु उसकी निर्दोषताका पता लगाना बहुत आवश्यक है। यही कारण है कि तर्कग्रन्थोमें प्रमाण-निरूपणके परिप्रेक्ष्य में प्रमाणाभास-निरूपण भी पाया जाता है। न्यायसूत्रमे प्रमाणपरीक्षा प्रकरणमें अनुमानकी परीक्षा करते हए उसमें दोषाशका और उसका निरास किया गया है। वात्स्यायनने अननमान (अनुमानाभास) को अनुमान समझनेकी चर्चा द्वारा स्पष्ट बतलाया है कि दूषितानुमान भी सम्भव है।
अब देखना है कि अनुमानमें क्या दोष हो सकते हैं और वे कितने प्रकारके सम्भव है ? स्पष्ट है कि अनुमानका गठन मुख्यतया दो अङ्गों पर निर्भर है-१ साधन और २ साध्य (पक्ष) । अतएव दोप भी साधनगत और साध्यगत दो ही प्रकारके हो सकते हैं और उन्हें क्रमश साधनाभास तथा साध्याभास (पक्षाभास) नाम दिया जा सकता है। साधन अनुमान-प्रासादका वह प्रधान एव महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है जिसपर उसका भव्य भवन निर्मित होता है। यदि प्रधान स्तम्भ निर्बल हो तो प्रासाद किसी भी क्षण क्षतिग्रस्त एव घराशायी हो सकता है। सम्भवत इसोसे गौतमने साध्यगत दोषोका विचार न कर मात्र साधनगत दोषोका विचार किया और उन्हें अवयवोकी तरह सोलह पदार्थोके अन्तर्गत स्वतन्त्र पदार्थका स्थान प्रदान किया है। इससे गौतमको दृष्टिमें उनकी अनुमानमें प्रमुख प्रतिबन्धकता प्रकट होती है । उन्होने उन साधनगत दोषोको, जिन्हें हेत्वाभासके नामसे उल्लिखित किया गया है, पाँच बतलाया है। वे हैं-१ सव्यभिचार, २ विरुद्ध, ३ प्रकरणसम, ४ साध्यसम और ५ कालातीत । हेत्वाभासोकी पांच सख्या सम्भवत हेतुके पांच रूपोके अभावपर आधारित जान पडतो है । यद्यपि हेतुके पांच रूपोंका निर्देश न्यायसूत्रमें उपलब्ध नही है । पर उसके व्याख्याकार उद्योतकर प्रभृतिने उनका उल्लेख किया है। उद्योतकरने१० १ परी० मु० ३२४६। प्र० न० त० ३४२ । प्र० मी० २।१।१० । २. प्र० न० त० ३१४२, पृ० ५६५ । ३ प्र० मी० २।१।१०, पृष्ठ ५२ । ४ जनत० भा० पृष्ठ १६ । ५ प्रमाणादर्थससिद्धिस्तदाभासाद्विपर्यय ।-माणिक्यनन्दि, परी० मु०, प्रतिज्ञाश्लो०१। ६ न्यायसू० २।११३८, ३९ । ७ न्यायमा० २।१।३९ । ८ न्यायसू० १।२।४-९ । ९ सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीता हेत्वाभामा । न्यायसू० १।२।४ । १० समस्तलक्षणोपपत्तिरसमस्तलक्षणोपपत्तिश्च । -न्यायवा० ११२।४, पृष्ठ १६३ ।
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