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________________ अभिप्रेत हैं, क्योकि युक्तिदीपिकामें' उक्त दशावयवोका न केवल निर्देश है किन्तु स्वमतरूपमें उनका विशद एव विस्तृत व्याख्यान भी है। युक्तिदीपिकाकार उन अवयवोको बतलाते हुए पतिपादन करते हैं कि 'जिज्ञासा, सशय, प्रयोजन, शक्यप्राप्ति और सशयव्युदास ये पांच अवयव व्याख्याग हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, दष्टान्त, उपसहार और निगमन ये पांच परप्रतिपादनाग । तात्पर्य यह कि अभिधेयका प्रतिपादन दूसरोके लिए प्रतिज्ञादि द्वारा होता है और व्याख्या जिज्ञासादि द्वारा । पुनरुक्ति, वैयर्थ्य आदि दोषोका निरास करते हुए युक्तिदीपिकामें कहा गया है कि विद्वान् सबके अनुग्रह के लिए जिज्ञासादिका अभिधान करते हैं । यत व्युत्पाद्य अनेक तरहके होते है-सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न । अत इन सभीके लिए सन्तॊका प्रयास होता है । दूसरे, यदि प्रतिवादी प्रश्न करे कि क्या जानना चाहते हो ? तो उसके लिए जिज्ञासादि अवयवोका वचन आवश्यक है। किन्तु प्रश्न न करे तो उसके लिए वे नही भी कहे जाएँ । अन्तमें निष्कर्ष निकालते हए युक्तिदीपिकाकार कहते हैं कि इसीसे हमने जो वीतानुमानके दशावयव कहे वे सर्वथा उचित हैं। आचार्य (ईश्वरकृष्ण) उनके प्रयोगको न्याय-सगत मानते हैं।' इससे अवगत होता है कि दशावयवकी मान्यता युक्तिदीपिकाकारकी रही है। यह भी सम्भव है कि ईश्वरकृष्ण या उनसे पूर्व किसी साख्य विद्वान्ने दशावयवोको माना हो और युक्तिदीपिकाकारने उनका समर्थन किया हो। जैन विद्वान् भद्रबाहने भी दशावयवोका उल्लेख किया है। जैसा कि पूर्वमें लिखा गया है। किन्त उनके वे दशावयव उपयुक्त दशावयवोसे कुछ भिन्न है। प्रशस्तपादने पांच अवयव माने हैं । पर उनके अवयवनामो और न्यायसूत्रकादके अवयवनामोमें कछ अन्तर है। प्रतिज्ञाके स्थानमें तो प्रतिज्ञा नाम ही है। किन्तु हेतुके लिए अपदेश, दृष्टान्तके लिए निदर्शन. उपनयके स्थानमें अनुसन्धान और निगमनकी जगह प्रत्याम्नाय नाम दिये हैं। यहां प्रशस्तपादकी एक विशेषता उल्लेखनीय है। न्यायसूत्रकारने जहां प्रतिज्ञाका लक्षण 'साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा' यह किया है कि वहां प्रशस्तपादने 'अनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा' यह कहकर उसमें 'अविरोधी' पदके द्वारा प्रत्यक्ष-विरुद्ध आदि १-२ तस्य पुनरवयवा-जिज्ञासा-सशय प्रयोजन-शक्य प्राप्ति-सशयव्युदासलक्षणाश्च व्याख्यागम प्रतिज्ञा हेत-दष्टान्तोपसहार-निगमनानि परप्रतिपादनागमिति । -युक्तिदी० का० ६, पष्ठ ४७ । ३. अत्र ब्रूम -न, उक्तत्वात् । उक्तमेतत् पुरस्तात् व्याख्याग जिज्ञासादय । सर्वस्य चानुग्रह कर्तव्य इत्येवमयं च शास्त्रव्याख्यान विपश्चिद्धि प्रत्याय्यते, न स्वार्थ शश्वदज्ञबुद्धयर्थं वा -वही. का० ६, पृष्ठ ४९ । ४. 'तस्मात् सूक्त दशावयवो वीत । तस्य पुरस्तात् प्रयोग न्याय्यमाचार्या मन्यन्ते ।' -यु० दी० का०६. पृष्ठ ५१ । अवयवा पुनजिज्ञासादय प्रतिज्ञादयश्च । तत्र जिज्ञासादयो व्याख्यागम् प्रतिज्ञादय परप्रत्यायनागम । तानुत्तरत्र वक्ष्याम ।' -वही० का० १ की भूमिका पृष्ठ ३ । ५ यक्तिदीपिकाकारने इसी बातको आचार्य (ईश्वरकृष्ण) की कारिकाओ-१,१५,१६,३५ और ५७ के प्रतीको द्वारा समर्थित किया है। -यु दी. का० १ की भूमिका पृष्ठ ३ । ६. दशवै० नि० गा० ४९-१३७ । ७ अवयवा पुन प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नाया । -प्रश० भा० पृ० ११४ । ८ वही, पृ० ११४, ११५ । -१४९
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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