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________________ नाये गये हो, क्योकि ये शब्द जैन न्यायग्रथोंमें अधिक प्रचलित एव प्रयुक्त मिलते हैं और शान्तरक्षित' आदि प्राचीन तार्किकोंने उन्हें पात्रस्वामीका मत कह कर उद्धृत तथा समालोचित किया है । अत उनका उद्गम जैन सर्कग्रन्थोंसे बहुत कुछ सम्भव है । प्रस्तुत अनुशीलनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते है कि न्याय, वैशेषिक और दौद्ध दर्शनोमें आरम्भ में पक्षधर्मता ( मपक्ष सत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति सहित) को तथा मध्यकाल और नव्ययुगमें पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनोको अनुमानका आधार माना गया है पर जैन ताकिकोने आरम्भसे अन्त तक पक्षधर्मता (अन्य दोनो रूपो सहित) को अनावश्यक तथा एकमात्र व्याप्ति (अविनाभाव, अन्यथानुपपन्नत्व) को अनुमानका अपरिहार्य अग बतलाया है । अनुमान-भेद प्रश्न है कि यह अनुमान कितने प्रकारका माना गया है? अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सर्व प्रथम कणादने अनुमानके प्रकारोका निर्देश किया है। उन्होंने उसको कण्ठत संख्याका तो उल्लेख नही किया, किन्तु उसके प्रकारोको गिनाया है । उनके परिगणित प्रकार निम्न है - (१) कार्य, (२) कारण, (३) सयोगी, (४) विरोधि और (५) समवायि यत हेतुके पांच भेद है, अत उनसे उत्पन्न अनुमान भी पाँच है। न्यायसूत्र' उपायहृदयें चरक' 'साख्यकारिका' और अनुयोगद्वारसूत्र में अनुमानके पूर्वोल्लिखित पूर्ववत् आदि तीन भेद बताये हैं । विशेष यह कि चरकमें त्रित्वसख्याका उल्लेख है, उनके नाम नही दिये । साख्यकारिकामें भी त्रिविधत्वका निर्देश है और केवल तीसरे सामान्यतोदृष्टका नाम है । किन्तु माठर तथा युक्तिदीपिकाकार ने तीनोके नाम दिये हैं और वे उपर्युक्त ही हूँ। अनुयोगद्वार में प्रथम दो भेद तो वही है, पर तीसरेका नाम सामान्यतोदृष्ट न होकर दृष्टसाधर्म्यवत् नाम है । इस विवेचनसे ज्ञात होता है कि ताकिकोने उस प्राचीन कालमें कणादकी पचविध अनुमान परम्पराको नही अपनाया, किन्तु पूर्ववदादि विविध अनुमानको परम्पराको स्वीकार किया है। इस परम्पराका मूल गया है? न्यायसूत्र है या अनुयोगसून आदिमेंसे कोई एक ? इस सम्बन्धमें निर्णयपूर्वक कहना कठिन है। पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उस समय पूर्वागत त्रिविध अनुमानकी कोई सामान्य परम्परा रही है जो अनुमान वर्षामें वर्तमान थी और जिसके स्वीकार में किसीको सम्भवत विवाद नहीं था। पर उत्तरकालमें यह त्रिविध अनुमान परम्परा भी सर्वमान्य नहीं रह सकी। प्रशस्तपादने " दो तरह से १. तत्त्वस० पृ० ४०५-४०८ । २ वैशे० सू० ९।२।१ । ३ न्यायसू० १।११५ । ४ उपायहु० पृ० १३ । ५ चरक सूत्रस्थान ११।२१, २२ । ६ सा० का०, का० ५ । ७ मुनि कन्हैयालाल, अनुयो० सू० पृ० ५३९ । ८ सा० का०, का० ६ । ९. माठरवृ०, का० ५ । १० युक्तिदी०, का० ५ ० ४३, ४४ । ११ प्रा० भा० पु० १०४, १०६, ११३ । - १४६ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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