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________________ बाद न्यायदर्शनमें समाविष्ट हो गये एव उन्हें एक-दूसरेका पर्याय माना जाने लगा । जयन्त भट्टने अविनाभावका स्पष्टीकरण करनेके लिए व्याप्ति, नियम, प्रतिबन्ध और साध्याविनाभावित्वको उसीका पर्याय बतलाया है। वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि हेतुका कोई भी सम्बन्ध हो उसे स्वाभाविक एव नियत होना चाहिये और स्वाभाविकका अर्थ वे उपाधिरहित बतलाते हैं। इस प्रकारका हेतु ही गमक होता है और दूसरा सम्बन्धी (साध्य) गम्य । तात्पर्य यह कि उनका अविनाभाव या व्याप्तिशब्दोपर जोर नही है। पर उदयन, केशव मिश्र, अन्नम्भट्टण, विश्वनाथ पचानन प्रभृति नैयायिकोने व्याप्ति शब्दको अपनाकर उसीका विशेष व्याख्यान किया है तथा पक्षधर्मताके साथ उसे अनुमानका प्रमुख अग बतलाया है। गगेश और उनके अनुवर्ती वर्तमान उपाध्याय, पक्षघरमिश्र, वासुदेव मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ तर्कवागीश, जगदीश तर्कालकार, गदाधर भट्टाचार्य आदि नव्य नैयायिकोने" व्याप्तिपर सर्वाधिक चिन्तन और निवन्धन किया है । गङ्गेशने तत्त्वचिन्तामणिमें अनुमानलक्षण प्रस्तुत करके उसके व्याप्ति और पक्षधर्मता' दोनों अगोंका नव्यपद्धतिसे विवेचन किया है। प्रशस्तपाद-भाष्यमें भी अविनाभावका प्रयोग उपलब्ध होता है। उन्होने अविनाभूत लिंगको लिंगीका गमक बतलाया है। पर वह उन्हें त्रिलक्षणरूप ही अभिप्रेत है।१२ यही कारण है कि टिप्पणकारने 3 अविनाभावका अर्थ 'व्याप्ति' एव 'अव्यभिचरित सम्बन्ध दे करके भी शकरमिश्र द्वारा किये गये अविनाभावके खण्डनसे सहमति प्रकट को है और 'वस्तुतस्त्वनोपाषिकसम्बन्ध एव व्याप्ति १४ इस उदयनोक्त५ व्याप्तिलक्षणको हो मान्य किया है। इससे प्रतीत होता है कि अविनाभावकी मान्यता वैशेषिकदर्शनको भी स्वोपज्ञ एव मौलिक नही है । १ अविनाभावो व्याप्तिनियम प्रतिबन्ध साध्याविनाभावित्वमित्यर्थ ।-न्यायकलि० पू० २ । तस्माद्यो वा स वाऽस्तु, सम्बन्ध , केवल यस्यासो स्वाभाविको नियत स एव गमको गम्यश्चेतर सम्बन्धोति युज्यते । तथा हि धूमादीना वह्नयादिसम्बन्ध स्वाभाविक न तु वह्नयादीना घूमादिभि । तस्मादुपाधि प्रयत्नेनान्विष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तीत्यवगम्य स्वाभाविकत्व सम्बन्धस्य निश्चिनुम । -न्यायवा० ता० टी० १६१०५, पृ० १६५ । ३ किरणा० पृ० २९०, २९४, २९५-३०२ । ४ तर्कभा० पृ० ७२, ७८, ८२, ८३, ८८ । ५ तर्कस० पृ० ५२-५७ । ६ सि० मु० का० ६८, पृ० ५१-५५ । ७ इनके ग्रन्योद्धरण विस्तारभयसे यहां अप्रस्तुत है । ८ त० चि० अनु० खण्ड, पृ० १३ । ९ वही, पृ० ७७-८२, ८६-८९, १७१-२०८, २०९-४३२ । १. वही, अनु० ख० पृ० ६२३-६३१ । ११-१२ प्र० भा०, पृ० १०३ तथा १०० । १३ वही, दुण्डिराज शास्त्री, टिप्प० पृ० १०३ । १४ प्र० भा० टिप्प० पृ० १०३ । १५ किरणा० पृ० २९७ ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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