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________________ ३ दिसाहम्मव-इस अनुमानके दो भेद है। यथा १ सामन्नदिट्ठ (सामान्य-दृष्ट), २ विमेरा दिट्ठ (विशेपदृष्ट) । १ किसी एक वस्तुको देखकर तत्मजातीय सभी वस्तुओका साधर्म्य ज्ञात करना या बहुत वस्तुओको एक-सा देखकर किसी विशेष (एक) मे तत्साधर्म्यका ज्ञान करना सामान्यदृष्ट है। यथा-जैसा एक मनुष्य है, वैमे बहुतसे मनुष्य है । जैसे बहुतसे मनुष्य हैं वैमा एक मनुष्य है । जैसा एक करिशावक है वैसे वहुतसे फरिशावाक है। जैसे बहुतसे करिशावक है वैसे एक करिशावक है। जैसा एक कापण है वैसे अनेक कार्षापण है, जैसे अनेक कार्षापण है, वैसा एक कापण है। इस प्रकार सामान्यधर्मदर्शनद्वारा ज्ञातसे अज्ञातका ज्ञान करना सामान्य दृष्ट अनुमानका प्रयोजन है। २ जो अनेक वस्तुओंमेसे किसी एकको पृथक करके उसके वैशिष्टयका प्रत्यभिज्ञान कराता है वह विशेषदृष्ट है । यथा-कोई एक पुरुष बहुतसे पुरुषोके वीचमें पूर्वदृष्ट पुरुषका प्रत्यभिज्ञान करता है कि यह वही पुरुष है। या बहुतसे कापणोके मध्य में पूर्वदृष्ट कार्यापणको देखकर प्रत्यभिज्ञा करना कि यह वही कार्षापण है । इस प्रकारका ज्ञान विशेषदृष्ट दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान है । २ कालभेदसे अनुमानका त्रैविध्यर कालकी दृष्टि से भी अनुयोग-द्वारमै अनुमानके तीन प्रकारोंका प्रतिपादन उपलब्ध है । यथा-१ अतीतकालग्रहण, २ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण और ३ अनागतकालग्रहण । १ अतीतफालग्रहण-उत्तणवन, निप्पन्नशस्या पृथ्वी, जलपूर्ण कुण्ड-सर-नदी-दीपिका-तडाक आदि देखकर अनुमान करना कि सुवृष्टि हुई है, यह अतीतकालग्रहण है। २ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण-भिक्षाचर्याम प्रचुर भिक्षा मिलती देख अनुमान करना कि सुभिक्ष है, यह प्रत्युत्पन्नकालग्रहण है।। ३ अनागतकालग्रहण-बादलकी निर्मलता, कृष्ण पहाड, सविद्यत् मेघ, मेघगर्जन, वातोभ्रम, रक्त और प्रस्निग्ध सन्ध्या, वारुण या माहेन्द्रसम्बन्धी या और कोई प्रशस्त उत्पात इनको देख कर अनुमान करना कि सुवृष्टि होगी, यह अनागतकालग्रहण अनुमान है। उक्त लक्षणोका विपर्यय देखने पर तीनो कालोके ग्रहणमें विपर्यय भी हो जाता है। अर्थात् सूखी जमीन, शुष्क तालाब आदि देखने पर वृष्टिके अभावका, भिक्षा कम मिलने पर वर्तमान दुर्भिक्षका और प्रसन्न दिशाओं आदिके होने पर अनागत कुवृष्टिका अनुमान होता है, यह भी अनुयोगद्वारमें सोदाहरण अभिहित है। उल्लेखनीय है कि कालभेदसे तीन प्रकारके अनुमानोका निर्देश चरकसूत्रस्थान (अ० १११२१, २२) में भी मिलता है। न्यायसूत्र, उपायहृदय और साख्यकारिका में भी पूर्ववत् आदि अनुमानके तीन भेदोका प्रतिपादन है। उनमें प्रथमके दो वही हैं जो ऊपर अनुयोगद्वारमे निर्दिष्ट है। किन्तु तीसरे भेदका नाम अनुयोगकी १. से कि त दिट्ठसाहम्मव । दिट्ठसाहम्मव दुविह पण्णत्त । जहा-सामन्नदिट्ठ च विसेसदिट्ट च । -वही, पृष्ठ ५४१-४२ २ तस्स समासो तिविह गहण भवइ । त जहा-१ अतीतकालगहण, २ पदुप्पण्णकालगहण, ३ अणा गयकालगहण |-वही, पृष्ठ ५४१-५४२ । ३ अक्षपाद, न्यायसू० १।१।५ । ४ उपायह० पृ० १३ । ५ ईश्वरकृष्ण, सा० का० ५, ६ ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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