SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किन्तु तर्क और तर्की शब्दोका प्रयोग यहाँ क्रमश कुतर्क (वितण्डावाद या व्यर्थके विवाद) और कुतर्की (वितण्डावादी)के अर्थमें हुआ ज्ञात होता है । अथवा ब्रह्मजालसुत्तका उक्त कथन उस युगका प्रदर्शक है, जब तर्कका दुरुपयोग होने लगा था। और इसीसे सम्भवत. ब्रह्मजालसुत्तकारको आत्मज्ञानके लिए तर्कविद्याके अध्ययनका निषेध करना पड़ा। जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि उसमें तर्क और तर्की शब्द प्रयुक्त हैं और तर्कविद्याका अध्ययन आत्मज्ञानके लिए न सही, वस्तु-व्यवस्थाके लिए आवश्यक था। न्यायसूत्र' और उसकी व्याख्याओंमें तर्क और अनुमानमें यद्यपि भेद किया है-तर्कको अनुमान नही, अनुमानका अनुग्राहक कहा है । पर यह भेद बहुत उत्तरकालीन है । किसी समय हेतू, तर्क, न्याय और अन्वीक्षा ये सभी अनुमानार्थक माने जाते थे। उद्योतकरके उल्लेखसे यह स्पष्ट जान पडता है । न्यायकोशकारने तर्कशब्दके अनेक अर्थ प्रस्तुत किये हैं। उनमें आन्वीक्षिकी विद्या और अनमान अर्थ भी दिया है। वाल्मीकि रामायणमें" आन्वीक्षिकी शब्दका प्रयोग है जो हेतुविद्या या तर्कशास्त्रके अर्थ में हुआ है। यहां उन लोगोको 'अनर्थकुशल', 'बाल', 'पण्डितमानी' और 'दुर्बुध' कहा है जो प्रमुख धर्मशास्त्रोके होते हए भी व्यर्थ आन्वीक्षिकी विद्याका सहारा लेकर कथन करते या उमकी पुष्टि करते हैं। महाभारतमे आन्वीक्षिकीके अतिरिक्त हेतु, हेतुक, तर्कविद्या जैसे शब्दोका भी प्रयोग पाया जाता है। तर्कविद्याको तो आन्वीक्षिकीका पर्याय ही बतलाया है । एक स्थानपर याज्ञवल्क्यने विश्वावसूके प्रश्नोका उत्तर आन्वीक्षिकीके माध्यमसे दिया और उसे परा (उच्च) विद्या कहा है। दूसरे स्थलपर याज्ञवल्क्य राजर्षि जनकको आन्वीक्षिकीका उपदेश देते हुए उसे चतुर्थी विद्या तथा मोक्षके लिए प्रयी, वार्ता और दण्डनीति तीनो विद्याओसे अधिक उपयोगी बतलाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य जगह' शास्त्रश्रवणके अनधिकारियोके लिए 'हेतुदुष्ट' शब्द आया है, जो असत्य हेतु प्रयोग करनेवालोंके ग्रहणका बोधक प्रतीत होता है। ध्यातव्य है कि जो व्यर्थ तर्कविद्या (आन्वीक्षिकी) पर अनुरक्त हैं उन्हें महाभारतकारने वाल्मीकि रामायणकी तरह पण्डितक, हेतुक, और वेदनिन्दक कहकर उनकी भर्त्यस्ना भी की है । तात्पर्य यह कि तर्कविद्याके सदुपयोग और दुरुपयोगकी ओर उन्होने सकेत किया है। एक अन्य प्रकरणमें नारदको १ अक्षपाद गौतम, न्यायसू० ११११३,११११४०।। २ वात्स्यायन, न्यायभाष्य ११११३, ११११४०, उद्योतफर, न्यायवा १२११३, १।११४० । ३ अपरे त्वनुमान तर्क इत्याह । हेतुस्तर्को न्यायोऽन्वीक्षा इत्यनुमानमाख्यायत इति ।-उद्योतकर, न्यायवा०, ११११४०, चौखम्बा विद्याभवन, सन् १९१६ । ४ भीमाचार्य (सम्पादक), न्यायकोश, 'तर्क' शब्द, १० ३२१, प्राच्यविद्यासशोधनमन्दिर, बम्बई, सन् १९२८ । ५ वाल्मीकि, रामायण, अयो० का १००।३८,३९, गीताप्रेस, गोरखपुर, वि स २०१७ । ६ व्यास, महाभारत, शान्तिपर्व २१०।२२, १८०।४७, गीताप्रेस, गोरखपुर, वि स २०१७ । ७ वही, शा०प० ३१८।३४ । ८ वही, शा०प० ३१८।३५ । ९ वही, अनुशा०प०१३४।१७ १० वही, शा० ५० १८०१४७ । ११. व्यास, महाभा० सभापर्व ५१५,८ । - १२०
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy