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________________ वचन भी उपचारसे परार्थश्रुत ज्ञान माने जाते है । तथा वही प्रतिपत्ता उस वस्तुके धर्मोका स्वय ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थश्रुतज्ञान है । आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि [१-६] में उक्त प्रश्नका अच्छा समाधान किया है । उन्होने लिखा है कि 'तत्र प्रमाण द्विविध स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वार्थ प्रमाण श्रुतवजम् । श्रुत पुन स्वार्थ भवति परार्थं च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थम् । तद्विकल्पा नया.।' अर्थात प्रमाण दो प्रकारका है-१ स्वार्थ और २ परार्थ। इनमें श्रुतको छोडकर शेष सभी (मति, अवधि, मन पर्यय और केवल) स्वार्थप्रमाण है। किन्तु श्रुत स्वार्थप्रमाण भी है और परार्थ प्रमाण भी है। ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थप्रमाण है और वचनात्मक श्रुत परार्थप्रमाण है। इसीके भेद नय है । पूज्यपादके इस विवेचनसे स्पष्ट है कि नय भी ज्ञानरूप है और श्रुतज्ञानके भेद है। विद्यानन्दने भी तत्त्वार्थश्लोकवातिक [१-६] में उक्त प्रश्नका सयुक्तिक समाधान किया है । वे कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु वह प्रमाणका अश है। जिस प्रकार समुद्रसे लाया गया घडे भर पानी न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रका अश है । यथा नाय वस्तु न चावस्तु वस्त्वश कथ्यते यत. । नासमुद्र समुद्रो वा समुद्राशो यथोच्यते ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषाशस्यासमुद्रता। समुद्रबहुत्व वा स्यात्तच्चेत्स्वास्तु समुद्रवित् ॥ -त० श्लो० वा० पृ० ११८ । अत नय प्रमाणरूप एव ज्ञानरूप होनेपर भी छद्मस्थ ज्ञाता और वक्ताओकी दृष्टिसे उनका पथक निरूपण किया गया है। ससारके सभी व्यवहार नयोको लेकर ही होते हैं। प्रमाण अशेषार्थग्राहकरूपसे वस्तुका प्रकाशक--ज्ञापक है और नय वस्तुके एक-एक अशोके प्रकाशक-ज्ञापक है और इस प्रकार नय भी प्रमाणको तरह ज्ञापकतत्त्व है। आचार्य समन्तभद्रने भी आप्तमीमासामें प्रमाण और नय दोनोको वस्तप्रकाशक कहा है तत्त्वज्ञान प्रमाण ते युगपत् सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञान स्याद्वादनयसस्कृतम् ॥ 'सम्पूर्ण पदार्थोंको युगपत् प्रकाशित करनेवाला तत्त्वज्ञान प्रमाणरूप है और क्रमसे होनेवाला छदमस्थोका ज्ञान स्याद्वादनयस्वरूप है।' नयोका वैशिष्ट्य ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें नयोका वही महत्त्वपूर्ण स्थान है जो प्रमाणका है। प्रमाण और नय दोनो जैन दर्शनकी आत्मा हैं। यदि नयको न माना जाय तो वस्तुका ज्ञान अपूर्ण रहनेसे जैन दर्शनकी आत्मा (वस्तु-विज्ञान) अपूर्ण रहेगी। वास्तवमें नय ही विविध वादो एव प्रश्नोके समाधान प्रस्तुत करते हैं। वे गुत्थियोके सुलझाने तथा सही वस्तुस्वरूप बतलाने में समर्थ हैं। प्रमाण गूंगा है, बोल नहीं सकता और न विविध वादोको सुलझा सकता है। अत जैन दार्शनिकोने मतान्तरोका समन्वय करनेके लिए नयवादका विस्तारके साथ प्रतिपादन किया है। वचनप्रयोग और लोकव्यवहार दोनो नयाश्रित है। विना नयका अवलम्बन लिए वे दोनो ही सम्भव नही है। अत सभी दर्शनोको इस नयवादको स्वीकार -१११
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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