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अतएव नयन अज्ञानरूप है, न प्रमाणरूप है और न अप्रमाणरूप । अपितु प्रमाणका एकदेश है। इसीसे उसे प्रमाणसे पृथक् अधिगमोपाय निरूपित किया गया है। अशप्रतिपत्तिका एकमात्र सावन वही है। अंशी-वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अश-अवस्था द्वारा पदार्यका निश्चय करना नय कहा गया है। प्रमाण और नयके पारस्परिक अन्तरको स्पष्ट करते हुए जैन मनीपियोने कहा है कि प्रमाण समग्रको विषय करता है और नय असमग्रको।
प्रखर तार्किक विद्यानन्दने नो उपर्युक्त प्रश्नोंका युक्ति एवं उदाहरण द्वारा समाधान करके प्रमाण और नयके पार्थक्यका बड़े अच्छे ढगसे विवेचन किया है। वे जैन दर्शनके मूर्धन्य ग्रन्य अपने तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु प्रमाणकदेश है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समुद्रसे लाया गया घडा भर पानी न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रैकदेश है। यदि उसे समुद्र मान लिया जाय तो शेष सारा पानी असमुद्र कहा जायगा, अथवा बहुत समुद्रोकी कल्पना करनी
न हि मत्यवधि मन पर्ययाणामन्यतमेनापि प्रमाणेन गृहीतस्यार्थस्याशे नया प्रवर्तन्ते, तेषा नि शेषदेशकालार्थगोचरत्वात, मत्यादीना तदगोचरत्वात् । न हि मनोमतिरप्यशेषविषया करणविषये तज्जातीये वाप्रवृत्त ।। त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेषु वृत्तित । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषा न युज्यते ॥२६॥ परोक्षाकारतावृत्ते स्पष्टत्वात् केवलस्य तु । श्रुतमूला नया सिद्धा वक्ष्यमाणा प्रमाणवत् ।।२७॥
यथैव हि श्रुत प्रमाणमधिगमजसम्यग्दर्शननिवन्धनतत्त्वार्थाधिगमोपायभूत मत्यवधिमन पर्ययकेवलात्मक च वक्ष्यमाण तथा श्रुतमूला नया सिद्धास्तेषा परोक्षाकारतया वृत्ते । तत केवलमूला नयास्त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेष वर्तनादिति न युक्तमुत्पश्यामस्तद्वत्तेषा स्पष्टत्वप्रसगात् ।"
-विद्यानन्द, तत्त्वार्थश्लो०१-६, पृ० १२४ । १ (क) "एव हि उक्तम्-"प्रगृह्य प्रमाणत परिणतिविशेषादर्थावधारण नय ।"
-सर्वार्थसि०१-६ । (ख) "वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हि हेत्वर्पणात् साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण प्रयोगो नय ।"
-सर्वा०सि० १-३३। २. (क) 'सकलादेश प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः'।-स०सि०१-६ ।
(ख) 'अर्थस्यानेकरूपस्य धी प्रमाण तदशधी ।
___नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृति ॥'-अष्टस० पृ० २९० । ३ (क) नाप्रमाण प्रमाण वा नयो ज्ञानात्मको मत ।
स्यात्प्रमाणकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधत ।। -त० श्लो० वा० पृ० १२३ । (ख) 'नाय वस्तु न चावस्तु वस्त्वश कथ्यते यत ।
नासमुद्र समुद्रो वा समुद्राशो यथोच्यते ।। तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषाशस्यासमुद्रता । समुद्रबहत्व वा स्यात्तच्चेत्कोस्तु समुद्रवित् ।। -त० श्लो० पू० ११८ ।
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