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समन्तभद्रके उत्तरवर्ती सूक्ष्म चिन्तक अकलकदेवने सर्वज्ञताकी सभावनामें जो महत्त्वपूर्ण युक्तियाँ दी है वे भी यहाँ उल्लेखनीय हैं । अकलककी पहली युक्ति यह है कि आत्मामें समस्त पदार्थोंको जानने की सामर्थ्य है । इस सामर्थ्य के होनेसे ही कोई पुरुष विशेष वेदके द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयोको जानने में समर्थ हो सकता है, अन्यथा नही । हाँ, यह अवश्य है कि ससारी अवस्थामें ज्ञानावरणसे आवृत होने के कारण ज्ञान सव ज्ञेयोको नही जान पाता । जिस तरह हम लोगोका ज्ञान सब ज्ञेयोको नही जानता, कुछ सीमितोको ही जान पाता है । पर जब ज्ञानके प्रतिबन्धक कर्मों (आवरणो ) का पूर्ण क्षय हो जाता है तो उस विशिष्ट इन्द्रियानपेक्ष और आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञानको, जो स्वय अप्राप्यकारी भी है, समस्त ज्ञेयोको जाननेमें क्या बाघ है' ?
उनकी दूसरी युक्ति यह है कि यदि पुरुषोको घर्माधर्मादि अतीन्द्रिय ज्ञेयोका ज्ञान न हो तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहो की ग्रहण आदि भविष्यत् दशाओ और उनसे होनेवाला शुभाशुभका अविसवादी उपदेश कैसे हो सकेगा ? इन्द्रियोकी अपेक्षा किये बिना ही उनका अतीन्द्रियार्थविषयक उपदेश सत्य और यथार्थ स्पष्ट देखा जाता है । अथवा जिस तरह सत्य स्वप्न-दर्शन इन्द्रियादिकी सहायता के बिना ही भावी राज्यादि लाभका यथार्थ बोध कराता है उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी अतोन्द्रिय पदार्थोंमें सवादी और स्पष्ट होता है और उसमें इन्द्रियोकी आंशिक भी सहायता नही होती । इन्द्रियाँ तो वास्तवमें कम ज्ञानको ही कराती हैं। वे अधिक और सर्वविषयक ज्ञानमें उसी तरह बाधक हैं जिस तरह सुन्दर प्रासादमें बनी हुई खिडकियाँ अधिक प्रकाशको रोकती है ।
अकलककी तीसरी युक्ति यह है कि जिस प्रकार अणुपरिमाण बढता - वढता आकाशमें महापरिमाण या विभुत्वका रूप ले लेता है, क्योकि उसकी तरतमता देखो जाती है, उसी तरह ज्ञानके प्रकर्षमे भी तारतम्य देखा जाता है । मत जहाँ वह ज्ञान सम्पूर्ण अवस्था ( निरतिशयपने ) को प्राप्त हो जाता है वही सर्वज्ञता आ जाती है । इस सर्वज्ञताका किसी व्यक्ति या समाजने ठेका नही लिया । वह प्रत्येक योग्य साधकको प्राप्त हो सकती है ।
उनकी चौथी युक्ति यह है कि सर्वज्ञताका कोई बाधक नही है । प्रत्यक्ष आदि पाँच प्रमाण तो इसलिए बाधक नही हो सकते, क्योंकि वे विधि ( अस्तित्व) को विषय करते हैं । यदि वे सर्वज्ञताके विषय में दखल दें तो उनसे सद्भाव हो सिद्ध होगा । मीमासकोका अभाव- प्रमाण भी उसका निषेध नही कर सकता, क्योकि अभाव - प्रमाणके लिए यह आवश्यक है कि जिसका अभाव करना है उसका स्मरण और जहाँ
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१. कथञ्चित् स्वप्रदेशेषु स्यात्कर्म-पटलाच्छता । ससारिणा तु जीवाना यत्र ते चक्षुरादय ॥ साक्षात्कर्तुं विरोध, क सर्वथाऽऽवरणात्यये । सत्यमर्थं यथा सर्वं यथाऽभूद्वा भविष्यति ॥ सर्वार्थग्रहणसामर्थ्याच्चैतन्यप्रति बन्धिनाम् कर्मणा विगमे कस्मात् सर्वान्नर्थान् न पश्यति ॥ ग्रहादिगतय सर्वा सुख दुखादिहेतव । येन साक्षात्कृतास्तेन किन्न साक्षात्कृत जगत् ॥ ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेय किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात्सर्वार्थावलोकनम् ॥ २ गृहीत्वा वस्तुसद्भाव स्मृत्वा च प्रतियोगिनाम् । मानस नास्तिताज्ञान जायतेऽक्षानपेक्षया ॥
न्यायविनिश्चय, का०, ३६१, ६२, ४१०, ४१४, ४६५ ।
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