________________
सल्लेखनाके भेद
जैन शास्त्रो शरीरका त्याग तीन तरहसे बताया गया है । एक च्युत, दूसरा च्यावित और तीसरा त्यक्त।
त-जो आयु पूर्ण होकर शरीरका स्वत छूटना है वह च्युत त्याग (मरण) कहलाता है। २ च्यावित~जो विष-भक्षण, रक्त-क्षय, धातु-क्षय, शस्त्र-घात, सक्लेश, अग्नि-दाह, जल-प्रवेश, गिरि-पतन आदि निमित्त कारणोसे शरीर छोडा जाता है वह च्यावित त्याग (मरण) कहा गया है।
३ त्यक्त-रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता तथा मरणको आसन्नता ज्ञात होनेपर जो विवेकसहित सन्यासरूप परिणामोसे शरीर छोडा जाता है, वह त्यक्त त्याग (मरण) है ।
इन तीन तरहके शरीर-त्यागोमें त्यक्तरूप शरीर-त्याग सर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योंकि त्यवत अवस्थामे आत्मा पूर्णतया जागृत एव सावधान रहता है तथा कोई सक्लेश परिणाम नहीं होता।
इस त्यक्त शरीर-मरणको ही समाधि-मरण, सन्यास-मरण, पण्डित-मरण, वीर-मरण और सल्लेखनामरण कहा गया है । यह सल्लेखना-मरण (त्यक्त शरीरत्याग) भी तीत प्रकारका प्रतिपादन किया गया है, -१ भक्तप्रत्याख्यान, २. ईगिनी और३. प्रायोपगमन ।।
१ भक्तप्रत्याख्यान-जिस शरीर-त्यागमें अन्न-पानको धीरे-धीरे कम करते हुए छोडा जाता है उसे भवत-प्रत्याख्यान या भक्त-प्रतिज्ञा-सल्लेखना कहते हैं । इसका काल-प्रमाण न्यूनतम अन्तर्मुहूत है और अधिकतम बारह वर्ष है। मध्यम अन्तर्मुहूंतसे ऊपर तथा बारह वर्षसे नीचेका काल है। इसमें आराधक आत्मातिरिक्त समस्त पर-वस्तुओसे राग-द्वेपादि छोडता है और अपने शरीरकी टहल स्वय भी करता है और दूसरोंसे भी कराता है। 712 इगिनी--जिस शरीर-त्यागमे क्षपक अपने शरीरकी सेवा-परिचर्या स्वय तो करता है, पर दूसरोंसे नही कराता उसे इगिनी-मरण कहते है । इसमें क्षपक स्वय उठेगा, स्वय बैठेगा और स्वय लेटेगा
और इस तरह अपनी अमस्त क्रियाएँ स्वय ही करेगा । वह पूर्णतया स्वावलम्बनका आश्रय ले लेता है।) • • V३ प्रायोपगमन-जिस शरीर-त्यागमें इस सल्लेखनाका घारी न स्वय अपनी सहायता लेता है
और न दूसरेकी, उसे प्रायोपगमन-मरण कहते हैं। इसमें शरीरको लकडोकी तरह छोडकर आत्माकी ओर ही क्षपकका लक्ष्य रहता है और आत्माके ध्यानमैं हो वह सदा रत रहता है। इस सल्लेखनाको साधक तभी धारण करता है जब वह अन्तिम अवस्थामें पहुँच जाता है और उसका सहनन (शारीरिक बल और आत्मसामर्थ्य) प्रवल होता है। भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखनाके दो भेद
इनमें भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना दो तरहकी होती है -(१) सविचार-भवत-प्रत्याख्यान और (२) अविचार-प्रत्याख्यान । सविचार-भक्तप्रत्याख्यानमें आराधक अपने सघको छोडकर दूसरे सघमें जाकर सल्लेखना ग्रहण करता है । यह सल्लेखना बहुत काल बाद मरण होने तथा शीघ्र मरण न होनेकी हालतमें ग्रहण की जाती है । इस सल्लेखनाका धारी 'अर्ह' आदि अधिकारोके विचारपूर्वक उत्साह सहित इसे धारण करता है। इसीसे इसे सविचार-भक्त प्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते हैं। पर जिस आराधककी आयु अधिक नही है १ आ० नेमिचन्द्र, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गा० ५६, ५७, ५८ . -२ आ० नेमिचन्द्र, गो० क० गा०६१ ।
-९२