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यथारूप से यथाथवा
जड़ा तवा कारण है । च
दर्शन, जीवन और जगत् दृष्टिकोणों का आश्रय लिया है। अब हम इन दृष्टिकोणों को समझने का प्रयत्न करते हुए इस प्रकरण को समाप्त करेंगे। यथार्थवादी विचारधाराएँ : __सामान्य रूप से यथार्थवाद के तीन भेद हैं-(१) जड़ाद्वैतवाद (२) द्वैतवाद (३) नानार्थवाद। जड़ातवाद केवल एक तत्त्व स्वीकार करता है। वही तत्त्व जगत् का मुख्य कारण है । चैतन्य आदि अन्य जितने भी तथाकथित तत्त्व हैं, उसी तत्त्व का रूपान्तर मात्र हैं। प्रारंभिक ग्रीक दार्शनिक थेलिस, एनाक्सिमेनेस, हेराक्लिटस एक ही तत्त्व में विश्वास करते थे। थेलिस केवल अप् तत्त्व को प्रधान मानता था। उसकी दृष्टि में अन्य सारे पदार्थ उसी के रूपान्तर मात्र थे । एनाक्सिमेनेस ने वायु को प्रधान तत्त्व माना । इसी प्रकार हेराक्सिटस की दृष्टि में तेज ही सब कुछ था । आत्मा भी तेज का ही एक रूप है, ऐसा उसका दृढ़ विश्वास था । एनाक्सिमान्डर ने सामान्य जड़मात्र स्वीकार किया। उसने उस सामान्य तत्त्व को विशेष नाम न देकर जड़ या भूतसामान्य के रूप में ही रखा।
द्वैतवाद इस सिद्धान्त को न मानकर कुछ आगे बढ़ता है और जड़ तत्त्व के साथ एक चेतन तत्त्व भी जोड़ देता है। उसकी दृष्टि में जगत् में दो मुख्य तत्त्व होते हैं-एक जड़ और दूसरा चैतन्य जितने भौतिक पदार्थ हैं, सभी जड़ तत्त्व के अन्तर्गत आ जाते हैं। जितना आध्यात्मिक तत्त्व है, सारा चैतन्य के अन्दर प्राजाता है । ग्रीक दार्शनिक एनाक्सागोरस ने जड़ तत्त्व के साथ-ही-साथ आत्मतत्त्व भी स्वीकृत किया जिसे उसने (Nous) नस कहा है। गति
और परिवर्तन का मुख्य कारण यही नूस है, ऐसा उसने प्रतिपादित किया है । एम्पिडोकल्स के विषय में थोड़ा सा मतभेद है, फिर भी यह निश्चित है कि उसने राग और द्वेष (Love and Hate) नामक तत्त्व की सत्ता स्वीकृत की। एरिस्टोटल को भी द्वैतवादी कह सकते हैं । मध्यकालीन दार्शनिक धारा तो द्वैतवाद के जल से ही प्रवाहित होती है। भारतीय दर्शन में सांख्य, मीमांसा तवाद के पक्के समर्थक हैं। .