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दर्शन, जीवन और जगत्
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नहीं है ) लम्बाई-चौड़ाई भी सबको एक सरीखी दिखाई दे रही है " इत्यादि । इसका क्या कारण है ? इसका कारण यही है कि हमारे सामने कोई ऐसी वस्तु अवश्य पड़ी हुई है, जो हमारे ज्ञान का विषय बन रही है । वह वस्तु हम सबसे भिन्न कोई स्वतंत्र पदार्थ है । रसल के शब्दों में " यद्यपि विभिन्न व्यक्ति एक मेज को थोड़ी-सी विभिन्नता से देख सकते हैं, फिर भी जिस समय वे मेज को देखते हैं, प्रायः एक सरोखी चीज ही देखते हैं । इससे सहज ही इस निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि सब व्यक्तियों के ज्ञान का विषय एक ही स्थिर पदार्थ है ।"
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भौतिक पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने का दूसरा कारण यह है कि इस प्रकार की मान्यता के आधार पर गणितशास्त्र की प्रक्रिया शीघ्र ही समझ में आ सकती है । यदि बाह्य पदार्थों की वास्तविक सत्ता न मानी जाय, तो गणित का कोई भी नियम किसी स्थान पर लागू नहीं हो सकता। यह ठीक है कि गणितशास्त्र की उत्पत्ति का आधार विचार - व्यापार ( Conceptional process) है, किन्तु विचार - व्यापार का आधार क्या है, यह सोचने पर हमें बाह्य पदार्थों की शरण लेनी ही पड़ती है । विचार का सारा व्यापार ठोस पदार्थों के आधार पर चलता है । हमारा कोई भी ऐसा विचार व्यापार नहीं है, जिसकी जड़ में ठोस वस्तु की सत्ता न हो । ' केवल विचार' की कल्पना केवल कल्पना है, वास्तविक सत्य नहीं । और फिर 'केवल कल्पना' भी अपने आप में किसी-नकिसी वस्तु को छिपाए रखती है ।
भौतिक पदार्थ और आध्यात्मिक तत्त्व के स्वरूप में इतना अधिक अन्तर है कि दोनों अभिन्न हो ही नहीं सकते । श्रात्मा का स्वभाव संवेदन या ज्ञान है, जबकि जड़ रूपादि गुणों से युक्त है । ज्ञान या संवेदन आत्मा के भीतर रहता है, जबकि भौतिक पदार्थ हमारी इंद्रियों के विषय बनते हैं और बाह्यसत्ता का उपभोग करते हैं। मान लीजिए, मेरे सामने इस समय एक पत्थर पड़ा हुआ है,
१—The Problems of Philosophy, पृष्ठ २१