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दर्शन, जीवन और जगत् व्यक्तिगत दर्शन (Individual perception) तक ही सीमित कर देता है । प्रागे जाकर वह दर्शन के स्थान पर धारणा (Conception) गब्द को अपना लेता है और कहता है कि धारणा ही सत् है, किन्तु फिर भी वह यादर्शवादी नहीं कहा जा सकता। सच्चा प्रादर्शवाद यह कभी नहीं मानता कि दर्शन, धारणा, विचारशक्ति, तर्क, युक्ति या बुद्धि तत्त्व अथवा सत्ता का निर्माण करते हैं । वह तो कहता है कि विचार या बुद्धि का कार्य निश्चय या निर्णय करना है। निर्माण और निर्णय भिन्न-भिन्न चीजें हैं। विचार का कार्यक्षेत्र तत्त्व को ममभना अर्थात् अपने माध्यम द्वारा तत्त्व का निर्णय करना है। तत्त्व एक ऐसी सत्ता है जो उससे भी बड़ी है, जो उसके निर्णय का विषय बनती है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सत्य या सत्ता विचार या कार्य नहीं, अपितु विषय है। विषय के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह कार्य भी हो। तत्त्व और विचार में विपयविपयिभाव सम्बन्ध है, न कि कार्यकारणभाव सम्बन्ध । कहने का तात्पर्य यही है कि श्रादर्शवाद जगत् की वास्तविक बाह्य सत्ता में कदापि अविश्वास नहीं करता। हां, इतना अवश्य है कि उसकी अन्तिम सत्ता उसी रूप में नहीं मानता, जिस रूप में कि वह साधारण प्रतोति का विषय बनती है । यद्यपि वे पदार्थ जिन्हें हम जानते हैं, अपनी सत्ता के लिए हम पर निर्भर नहीं रहते हैं । हम उन्हें जानें या न जाने, ये जगत् में रहते ही हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वे ज्ञाता से स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। इतना होते हुए भी पदार्थ-विपयक सम्पूर्ण निर्णय जान से पूर्ण सम्बद्ध होता है । ज्ञान से असम्बद्ध पदार्थ-निर्णय कदापि संभव नहीं होता। इससे यह स्पष्ट है कि जिस ढंग से हमें पदार्थशान होता है, उसकी एक निदिचत विधि एवं मार्ग है और उस विधि की सीमा के अन्दर रह कर हो हम वस्तुत्रों का ज्ञान कर सकते है । ऐसी दशा में यदि यह कहा जाय कि हम वास्तविक जगत् या घरजगत् (Youmenon) को नहीं जान सकते, किन्तु हमाग जान दृश्यजगत (Phenomenon) तक ही सीमित रहता है तो कोई बुरा नही । इसका केवल इतना ही अधं है कि पदार्थ हमारी दृष्टि
१. ENSE Ost concipi.