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'जैन- दर्शन
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प्रश्नों को लेकर आधुनिक वैज्ञानिकों ने जो नई-नई खोजें की हैं उन्हें लेकर दार्शनिक क्षेत्र में एक नई हलचल मच गई है । कुछ भी हो, आज भी दर्शन की दोनों विचारधाराएँ समान बल से अपने-अपने पक्ष को लेकर आगे बढ़ रही हैं और अपनी-अपनी धारणा एवं तर्क शक्ति के बल पर जगत् के स्वरूप को समझने का प्रयत्न कर रही हैं । साधारण व्यक्ति भौतिक या जड़ जगत् की सत्ता में कभी संदेह नहीं करता । वह कदापि यह नहीं सोचता कि जिस भौतिक जगत् का मैं अपनी इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर रहा हूँ वह जगत् उस रूप में झूठा या प्रतीतिमात्र है । उसका वास्तविक ग्राधार चेतना या चैतन्य है । बर्गसां ने तो यहाँ तक कह दिया कि हमारी भाषा ठोस पदार्थों की भाषा है ।" हम अपनी भाषा द्वारा ठोस पदार्थों का ही ठीक-ठीक वर्णन कर सकते हैं । हम कई बार मानसिक प्रवृत्तियों (Mental process) का वर्णन कर सकते हैं और उन प्रवृत्तियों के लिए भावना, प्रेरणा, भावुकता आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं किन्तु वास्तव में इन सारी प्रवृत्तियों का मौलिक आधार व महत्त्व भौतिक ही होता है । इन प्रवृत्तियों के मूल में भौतिक प्रेरणा ही कार्य करती है, अथवा यों कहिए कि इन प्रवृत्तियों का प्रादुर्भाव भौतिक प्रेरणा को प्रालम्बन बनाकर ही होता है । भौतिक प्राधार के प्रभाव में ये प्रवृत्तियाँ साधारण व्यक्ति की समझ में ग्रा ही नहीं सकती। इतना ही नहीं, इनका कथन भी भौतिक आधारशिला पर ही टिक सकता है। आदर्शवाद और यथार्थवाद में मौलिक भेद इसी भौतिक तत्त्व का है। आदर्शवाद भौतिक तत्त्व की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करता । यथार्थवाद इस धारणा को खुली चुनौती देता है । उसकी दृष्टि में भौतिक तत्त्व उसी रूप में स्वतन्त्र एवं सत्य है, जिस रूप में ग्राध्यात्मिक तत्त्व स्वतंत्र एवं सत्य है । पाश्चात्य परम्परा का दार्शनिक इतिहास देखने से पता लगता है कि सबसे पहले ग्रीक दार्शनिक पारमेनाइड्स ने ईसा से ५०० वर्ष पूर्व इस " बात की घोपरणा की थी कि ज्ञान और ज्ञेय ( Thought and the
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१. Our Language is a Language of solids.
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