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— जैन-दर्शन ___ योग-सांख्य और योग में ईश्वर-विषयक एकाध विषयों को छोड़कर विशेष अन्तर नहीं है। सांख्य ज्ञान-प्रधान है जबकि योग क्रिया की प्रधानता स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में पतंजलि के योगसूत्रों में सांख्य से मिलती-जुलती बातें हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पतंजलि ने स्पष्ट लिखा है कि संसार आदि से अंत तक दुःखमय ही है। जिसे हम लोग सुख समझते हैं वह वास्तव में सुख नहीं है अपितु दुःख ही है। इस बात को साधारण लोग नहीं समझ सकते । विवेकी यह अच्छी तरह से जानता है कि सांसारिक सुख परिणाम में दुःख ही देता है। यह जीवन नाना प्रकार की वृत्तियों एवं वासनाओं से परिपूर्ण है। विविध प्रकार की वृत्तियां एवं वासनाएं चित्त के भीतर परस्पर कलह किया करती हैं । एक वृत्ति की पूर्ति से चित्त में सुख होता है तो दूसरी के भंग से चित्त खिन्न हो जाता है । इन सव दुःखों का मूलकारण द्रष्टा और दृश्य, पुरुष और प्रकृति का संयोग है। उस संयोग का मुख्य हेतु अविद्या है-मिथ्याज्ञान है। उसको दूर करने का एक मात्र उपाय है विवेक ख्याति-तत्व ज्ञान--सच्चा ज्ञान। इस विवेक-ख्याति से ही सब कर्म और क्लेशों की निवृत्ति होती है। इस प्रकार सांख्य और योग का उद्देश्य प्रायः एक है। योग ने सांख्यदर्शन के मूल सिद्धान्तों को ज्योंका-त्यों लेकर क्रियापक्ष पर जोर दिया । विवेकख्याति के लिए क्रियापक्ष को आवश्यक माना। क्रिया के आधाररूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकृत की। योग का यह ईश्वर न्यायवैशेषिक के ईश्वर के समान जगत्-कर्ता न होकर प्रेरणा-प्राप्ति का साधनमात्र है।।
न्याय-गौतम ने अपने न्यायसूत्र में भी यही लिखा है कि दर्शन का प्रयोजन अपवर्गप्राप्ति है। उसनेप्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्त अवयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-बितण्डा- हेत्वाभास-छल-जाति-निग्रहस्थानइस प्रकार से सोलह पदार्थों की सत्ता मानी और कहा कि · इन सोलह
१-परिणामतापसंस्कारदुःखैगुणवृत्तिविरोधाच दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ।।
दृष्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः । तस्य हेतुरविद्या। विवेकख्यातिर- :: विप्लवा हानोपायः ।
-~-योगसूत्र--अ० २, सू० १५, १७, २४. २६ । ।