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जैन- दर्शन
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आधार केवल व्याप्ति है जबकि दर्शन व्याप्ति (Induction ) और निगमन ( Deduction ) ' दोनों को ग्राधार मान कर चलता है । इस प्रकार दर्शन विज्ञान की व्याप्ति-पद्धति को तो अपनाता ही है, साथ ही साथ निगमन-पद्धति का भी उपयोग करता है ।
विज्ञान और दर्शन में दूसरा मुख्य भेद यह है कि विज्ञान अपने निर्णय का प्रदर्शन अपूर्ण रूप में करता है, जबकि दर्शन अपने विषय का स्पष्टीकरण पूर्ण रूप से करता है । वैज्ञानिक निर्णय पूर्ण इसलिए नहीं होता कि उसका आधार सत्य का एक अंश दृश्य जगत् ही है । इस ग्रंश के पीछे रहने वाला दूसरा महत्त्वपूर्ण अंश - प्रलौकिक अथवा पारमार्थिक जगत् (Noumenon) विज्ञान को दिखाई नहीं देता, परिणामस्वरूप विज्ञान का दर्शन अधूरा होता है । दर्शन सत्य के दोनों अंशों को देखता है और उन्हीं अंशों के आधार पर अपना निर्णय देता है, फलस्वरूप दर्शन का निर्णय पूर्ण होता है ।
बिना अग्नि के धूम पहुंचते हैं कि धूम
१ - विशेष घटनात्रों को देखकर उनके आधार पर एक सामान्य नियमका निर्माण करना व्याप्ति ( Induction ) है, उदाहरण के लिए धूम श्रीर अग्नि के कार्य-कारण भाव को ले सकते हैं । हम अनेक स्थानों पर धूम और अग्नि को एक साथ देखते हैं तथा कहीं पर भी को नहीं देखते। इस अवलोकन से हम इस निर्णय पर अग्नि का ही कार्य है । इस प्रकार के कार्य कारणभाव के ग्रहण का नाम व्याप्तिग्रहण है । इसी को अंग्रेजी में (Induction) कहते हैं । इसके विपरीत एक दूसरी पद्धति है जिसे निगमन ( Deduction) कहते हैं । इसके अनुसार सामान्य नियम के आधार पर विशेष घटना की कसोटी होती है । उदाहरण के लिये मानवता को लीजिए। 'मानवता' एक सामान्य सिद्धान्त या गुण है । जिसमें हम यह गुण देखते हैं उसी को मानव कहना पसन्द करते हैं । निगमन विधि की विशेषता यह है कि वह हमारे अनुभव के आधार पर नहीं बनती अपितु हमारा अनुभव उसको ग्राधार मान कर श्रागे बढ़ता है । दूसरे शब्दों में व्याप्ति संयोजनात्मक ( Synthetic) है, जबकि निगमन विश्लेषणात्मक (Analytic) है । व्याप्ति अनेक घटनाओं के संयोजन से एक नियम बनाती है; निगमन का कार्य एक बने हुए नियम का विश्लेपण पूर्वक विविध घटनाओं के माथ मेल स्थापित करना है ।