________________
कर्मवाद
३५३
पाँच वर्ण - कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और सित; (१०) दो
--
गन्ध — सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध ; ( ११ ) पाँच रस - तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर ; ( १२ ) आठ स्पर्श - गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ; (१३) चार आनुपूर्वियाँ - देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी ; (१४) दो गतियाँ - शुभ विहायोगति और प्रशुभविहायोगति । प्रत्येक प्रकृतियों में निम्नोक्त आठ प्रकार के कार्यों से सम्बन्धित कर्मों का समावेश है: पराघात, उच्छ् वास, ग्रातप, उद्योत अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण और उपघात । त्रसदशक में निम्नलिखित से सम्बन्धित दस प्रकार के कर्मों का समावेश है : त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश: कीर्ति । स्थावरदशक में त्रस - दशक से विपरीत दस प्रकार की कर्मप्रकृतियाँ समाविष्ट हैं जो निम्नलिखित से सम्बन्धित हैं: स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और प्रायश: कीर्ति । इन एकसौ तीन कर्मप्रकृतियों के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता है । इस प्रकार शरीर रचना का कारण नाम कर्म है ।
गोत्र कर्म की दो उत्तर प्रकृतियाँ हैं : उच्च और नीच । जिस कर्म के उदय से प्राणी उत्तमकुल में जन्म ग्रहण करता है उसे उच्चगोत्र कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म नीच अर्थात् असंस्कारी कुल में होता है उसे नीचगोत्र कर्म कहते हैं ।
अन्तराय कर्म की पाँच उत्तर - प्रकृतियाँ हैं : दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय. उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । जिस कर्म के उदय से दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कर्म है । जिस कर्म का उदय होने पर उदार दाता की उपस्थिति में भी दान का लाभ प्राप्ति न हो सके वह लाभान्तराय कर्म है।
1
१ - विशेष विवेचन के लिए देखिए - कर्मविपाक (पं० सुखलालजी कृत हिन्दी अनुवाद सहित ) पृ० ५८ - १०५ ; Outlines of Karma in Jainism, पृ० १०-३
२३